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उपस्थापना (पंचमहाव्रत आरोपण) विधि का रहस्यमयी अन्वेषण... 205
3. हिरण्य - चाँदी के सिक्के, आभूषण आदि। 4. सुवर्ण - सोने के सिक्के और आभूषण आदि। 5. धन हीरे, पन्ने, माणक, मोती आदि। 6. धान्य गेहूँ, चावल, मूंग, मोठ आदि। 7. द्विपद - दो पैर वाले दास-दासी आदि । 8. चतुष्पद – चार पैर वाले गाय, भैंस आदि। 9. कुप्य - वस्त्र, पलंग और अन्य विविध प्रकार की गृह सामग्री ।
कहीं-कहीं पर द्विपद- चतुष्पद को एक गिनकर दास-दासी को पृथक् किया है और कहीं पर चाँदी, तांबा, पीतल, लोहा आदि को पृथक् भेद में गिन लिया है। जैन श्रमण उक्त सब परिग्रहों का तीन करण एवं तीन योग पूर्वक परित्याग करता है।
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अन्तरंग परिग्रह - सामान्यतया अन्तरंग परिग्रह पाँच प्रकार का माना गया है – मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और अशुभ योग । जैन आगम साहित्य में आभ्यन्तर परिग्रह के चौदह प्रकार निर्दिष्ट हैं - 1. मिथ्यात्व 2. हास्य 3. रति 4. अरति 5. भय 6. शोक 7. जुगुप्सा 8. स्त्रीवेद 9 पुरुषवेद 10. नपुंसकवेद 11. क्रोध 12. मान 13. माया और 14. लोभ । इनके द्वारा रागद्वेष की अभिवृद्धि होती है अतः परिग्रह की कोटि में गिने गये हैं। यद्यपि ये प्रकार बाह्य जगत में परिग्रह रूप दृष्टिगोचर नहीं होते हैं, किन्तु अन्तर्मानस में चोर की तरह छिपे रहते हैं अतः इन्हें अन्तरंग परिग्रह कहा जाता है। प्रश्नव्याकरणटीका में लालसा, तृष्णा, इच्छा, आशा, मूर्च्छा इन सभी को अन्तरंग परिग्रह माना है । 111 भगवतीसूत्र में परिग्रह के निम्न तीन भेद की चर्चा है -
1. कर्म परिग्रह राग-द्वेष के वशीभूत होकर अष्ट प्रकार के कर्मों को ग्रहण करना कर्म परिग्रह है।
2. शरीर परिग्रह - शरीर को धारण करना शरीर परिग्रह है ।
3. बाह्य भांडमात्र परिग्रह बाह्य वस्तु और पदार्थ आदि जीव के द्वारा ग्रहण किये जाते हैं, इसलिए परिग्रह हैं।
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जैन श्रमण को आभ्यन्तर एवं बाह्य सभी प्रकार के परिग्रह का त्याग करना होता है फिर भी आवश्यकताओं की दृष्टि से कुछ वस्तुएँ रखने की अनुमति है। ज्ञातव्य है कि श्वेताम्बर और दिगम्बर - परम्पराओं में बाह्य परिग्रह की दृष्टि से किञ्चित मतभेद है।
दिगम्बर-परम्परा के अनुसार श्रमण की आवश्यक वस्तुओं को तीन भागों में बांटा जा सकता है -
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