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204... जैन मुनि के व्रतारोपण की त्रैकालिक उपयोगिता
अपर नाम नव गुप्तियाँ भी है । इन नव गुप्तियों का पालन न करने पर ब्रह्मचर्य व्रत में अतिचार लगते हैं। 105
5. अपरिग्रह महाव्रत का स्वरूप
यह श्रमण का पांचवाँ महाव्रत है। इस महाव्रत का पालन करने वाला साधक प्रतिज्ञा करता है106 – 'हे भगवन् ! मैं सब प्रकार के परिग्रह का प्रत्याख्यान करता हूँ। गाँव में, नगर में या अरण्य में कहीं भी अल्प या बहुत, सूक्ष्म या स्थूल सचित्त या अचित्त परिग्रह का मैं स्वयं ग्रहण नहीं करूँगा, दूसरों से ग्रहण नहीं करवाऊंगा और परिग्रह ग्रहण करने वालों का अनुमोदन भी नहीं करूँगा। मेरी यह प्रतिज्ञा तीन करण- तीन योग पूर्वक यावज्जीवन के लिए है।' शेष पूर्ववत | इसका मूल नाम सर्वथापरिग्रहविरमण व्रत है ।
आचार्य उमास्वाति ने परिग्रह की परिभाषा करते हुए लिखा है कि वस्तु के प्रति जुड़ी हुई मूर्च्छा वास्तविक परिग्रह है। 107 दशवैकालिकसूत्र में भी यही बात कही गयी है।108 जैन विचारकों के अनुसार किसी वस्तु को आसक्तिपूर्वक ग्रहण करना परिग्रह है। परिग्रह का वास्तविक अर्थ बाह्य वस्तुओं का संग्रह करना मात्र नहीं है वरन आन्तरिक मूर्च्छाभाव या आसक्ति ही है। प्रश्नव्याकरणसूत्र की टीका में लिखा गया है कि जो पूर्ण रूप से ग्रहण किया जाता है वह परिग्रह है। पूर्ण रूप से ग्रहण करने का अर्थ है मूर्च्छा बुद्धि से ग्रहण करना और ममत्व बुद्धि से संगृहीत करना। यदि परिग्रह के इस अर्थ की दृष्टि से विचार करें तो परिग्रह का प्रमुख तत्त्व 'आसक्ति' सिद्ध होगा। यद्यपि श्रमण जीवन में बाह्य वस्तुओं की दृष्टि से भी विचार किया गया है। 109 दिगम्बर- परम्परा श्रमण के लिए बाह्य परिग्रह रखने का अत्यन्त सीमित विधान करती है, जबकि श्वेताम्बर - परम्परा में बाह्य परिग्रह के विभिन्न प्रकार किये गये हैं ।
परिग्रह के प्रकार
जैन आगमों में परिग्रह दो प्रकार का माना गया है
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1. बाह्य परिग्रह और
2. आभ्यन्तर परिग्रह | 110
बाह्य परिग्रह - पदार्थ अनन्त हैं अतः उसकी अपेक्षा से बाह्य परिग्रह के अगणित भेद किये जा सकते हैं। जैनाचार्यों ने बाह्य परिग्रह के नौ भेद गिनाये हैं, वे निम्न हैं
1. क्षेत्र - खेत या खुली भूमि आदि । 2. वास्तु - मकान, दुकान आदि।
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