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176... जैन मुनि के व्रतारोपण की त्रैकालिक उपयोगिता
अहिंसा व्रत के माध्यम से यह प्रेरणा उत्पन्न होती है कि जगत की सभी आत्माएँ एक समान हैं, सभी में एक ही तरह की चेतना है, सभी के गुण-धर्म भी समान हैं और सभी को एक-सी सुख - दुःख की अनुभूति होती है। सभी प्राणी जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता है । कूकर, शूकर और गन्दगी में कुलबुलाते हुए कीड़ों में भी जीजिविषा है। सभी मृत्यु से घबराते हैं। इस प्रकार जब व्यक्ति अन्य प्राणियों को अपनी आत्मा के समान समझने लगता है तो वह हिंसा जैसे निकृष्टतम कृत्य का मनोयोगपूर्वक त्याग कर देता है। इस चिन्तन के परिणाम स्वरूप स्वजीवन में आत्म तुल्यता का सिद्धान्त प्रस्थापित कर लेता है। इस व्रत की यह मुख्य उपादेयता है।
संक्षेप में कहें तो इस व्रत के परिपालन से समता भाव की वृद्धि होती है। करुणा, दया, मैत्री, परोपकार, सहयोग आदि के गुण विकसित होते हैं। अहिंसक दूसरों को जीने के लिए सहयोग प्रदान करता है और अपनी हिंसाओं की उपेक्षा करके भी दूसरों की रक्षा करने का प्रयास करता है। उसका मानसिक और वैचारिक जगत विशालता, उदारता एवं विराटता के शिखर पर पहुँच जाता है। निष्कर्षतः वह अनेक गुणों को अर्जित कर जीवन को स्व-पर कल्याण के लिए समर्पित कर देता है। अन्य भी अनेक लाभ विचारणीय हैं।
अहिंसा महाव्रत के अपवाद
सामान्यतया जैनागमों में अहिंसा महाव्रत के सम्बन्ध में अपवादों का उल्लेख मिलता है, किन्तु वे अपवाद त्रस जीवों की हिंसा के सम्बन्ध में नहीं है केवल वनस्पति एवं जल आदि को परिस्थितिवश छूने अथवा आवागमन की स्थिति में उनकी होने वाली हिंसाओं को लेकर है । यद्यपि निशीथचूर्णि आदि आगमेतर ग्रन्थों में मुनि संघ या साध्वी संघ के रक्षणार्थ सिंह आदि हिंसक प्राणियों एवं दुराचारी मनुष्यों की हिंसा करने सम्बन्धी अपवादों का भी उल्लेख है, किन्तु उनके पीछे संघ की रक्षा का प्रश्न जुड़ा हुआ है । इसी तरह यदि धर्म प्रभावना के निमित्त जल, वनस्पति या पृथ्वी-सम्बन्धी हिंसा होती हो तो उसकी छूट दी गयी है तथापि उसके लिए आलोचना या प्रायश्चित्त का विधान आवश्यक है। 35
अहिंसा महाव्रत की भावनाएँ
महाव्रतों के स्थिरीकरण के लिए पच्चीस भावनाओं का अभ्यास किया जाता है। अहिंसा महाव्रत के सम्यक् पालन हेतु निम्न पाँच भावनाएँ हैं 36 -
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