________________
अध्याय-7 उपस्थापना (पंचमहाव्रत आरोपण) विधि का
रहस्यमयी अन्वेषण
यह विधि पंचमहाव्रत आरोपण करने से सम्बन्धित है। इस संस्कार के द्वारा नूतन दीक्षित मुनि को पाँच महाव्रत अंगीकार करवाये जाते हैं। जैन धर्म में मुमुक्षु जीवों को श्रमण संघ में प्रवेश देने हेतु दो बार व्रतारोपण संस्कार-विधि करवाने का प्रावधान है। प्रथम बार यावज्जीवन के लिए सामायिक व्रत में स्थिर रहने की प्रतिज्ञा दिलवायी जाती है इसे प्रव्रज्या, दीक्षा, लघु दीक्षा आदि कहते हैं। दूसरी बार यावज्जीवन के लिए पंचमहाव्रतों का आरोपण किया जाता है, इसे बड़ी दीक्षा और उपस्थापना कहते हैं। शास्त्रीय परिभाषा में इसे छेदोपस्थापनीय चारित्र भी कहा गया है। यह संस्कार पंचमहाव्रतों एवं छठे रात्रि भोजन विरमणव्रत की प्रतिज्ञा से आबद्ध करने के प्रयोजनार्थ करवाया जाता है। प्रव्रज्याकाल में तो साधक सावध व्यापारों का वर्जन कर जीवनपर्यन्त के लिए सामायिक चारित्र ही ग्रहण करता है जबकि उपस्थापना द्वारा उसे महाव्रतों का आरोपण करवाया जाता है। इसी के साथ-साथ नव दीक्षित को मुनि संघ में बैठकर आहार, स्वाध्याय, प्रतिक्रमण, प्रतिलेखन आदि क्रियाएँ करने की अनुमति भी प्रदान की जाती है तथा श्रमणसंघ में सम्मिलित कर उसे मुनि संघ का सदस्य बनाया जाता है।
इस विधि-प्रक्रिया के द्वारा उपसंपद्यमान शिष्य को पांच महाव्रतों में स्थापित ही नहीं किया जाता अपितु उसे पूर्व परम्परा के अनुसार आवश्यकसूत्र एवं दशवैकालिकसूत्र इन आगम ग्रन्थों के योगोद्वहन भी करवाये जाते हैं। ये दोनों आगम मुनि जीवन की यथार्थ चर्या के प्रतिपादक हैं। कहा जाता है जब तक उपस्थापनाग्राही शिष्य इन आगम शास्त्रों का विधिपूर्वक अध्ययन नहीं कर लेता, तब तक उसकी समस्त क्रियाएं मात्र कायिक चेष्टा रूप ही होती हैं, अत: श्रमण