________________
अध्याय-6 केशलोच विधि की आगमिक अवधारणा
केशलुंचन जैन श्रमण की आचार संहिता का अभिन्न अंग है। जैन धर्म के अतिरिक्त यह चर्या अन्य किसी धर्म में विद्यमान नहीं है। जैन धर्म की यह वैशिष्ट्य पूर्ण क्रिया मुनि जीवन की कठोरतम साधना है और कष्ट सहिष्णता का अनुपम उदाहरण है। वस्तुत: इस आचार का पालन दैहिक आसक्ति को न्यून करने एवं कषायों के उत्पाटन के उद्देश्य से किया जाता है। केश लोच का शाब्दिक अर्थ
लञ्च' धातु से निष्पन्न लोच शब्द के कई अर्थ हैं - तोड़ना, खींचना, उखाड़ना आदि। यहाँ उखाड़ना अर्थ अभीष्ट है क्योंकि केशराशि को हाथ से उखाड़ना या निकालना लोच या केशलुञ्चन कहलाता है। इसे केशोत्पाटन भी कहते हैं। केशलुंचन की आवश्यकता क्यों ?
केशलुंचन की अनिवार्यता. को सुसिद्ध किया जा सके, ऐसे कुछ प्रयोजन निम्न हैं
जैन श्रमण निष्परिग्रही होते हैं, उनके पास एक कौड़ी भी नहीं रहती है तब वे दूसरों से क्षौर कर्म कैसे करवा सकते हैं ?
केशलोच का दूसरा प्रयोजन अयाचना है। जैन श्रमण किसी भी स्थिति में दीनता नहीं दिखलाते, किन्तु दूसरों से क्षौर कर्म करवाने पर उसे देने के लिए पैसे की याचना करनी होगी, जो दीनता को व्यक्त करता है।
केशलुंचन का तीसरा प्रयोजन अहिंसा व्रत का परिपालन है। यदि केशराशि बढ़ा दी जाये और उसकी साफ-सफाई भलीभांति न की जाये तो पसीना आदि के कारण जूं, लीख आदि के उत्पत्ति की पूर्ण सम्भावना रहती हैं जिससे हिंसाजन्य दोष लगता है।