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मण्डली तप विधि की तात्त्विक विमर्शना... 131 भूमिका निभाता है। इसी के साथ व्यवहार प्रबन्धन, वाणी प्रबन्धन आदि में भी लाभदायी है।
जब किसी भी स्थान या कार्य में कठिनाई से प्रवेश प्राप्त होता है तो उसकी मूल्यवत्ता अधिक समझ में आती है तथा उस कार्य में उतनी ही जागरुकता एवं निष्ठा रहती है। मण्डली तप भी साधु समुदाय में प्रवेश पाने की एक ऐसी ही क्रिया है जिससे साधक को स्वीकृत चारित्र धर्म एवं समूह की महत्ता ज्ञात होती है और वह संयम धर्म के प्रति पूर्ण वफादार रहता है। प्रबन्धन में वफादरी आवश्यक है। कौन सी क्रियाएँ किस प्रकार करने से अधिक लाभ प्राप्त किया जा सकता है, इसका ज्ञान होता है जो कि कार्य नियोजन के लिए सहायक है। समूह में कार्य करने से कठिनतर कार्य भी शीघ्रता से पूर्ण होता है जो किसी भी प्रबन्धन का मुख्य लक्ष्य है। इस तपाराधना की शक्ति से साधक अपने लक्ष्य से च्युत नहीं होता। समुदाय में किस प्रकार रहना आदि का ज्ञान अधिक परिपक्व बनता है। समुदाय नियोजन एवं नियन्त्रण की कला विकसित होती है। इसी प्रकार वैयक्तिक प्रबन्धन में भी मण्डली-विधि सहयोगी है। क्योंकि भीड़ में या समुदाय में रहकर भी किस प्रकार निर्लिप्त रहा जा सकता है, इसकी कला सुगमता से सीखी जा सकती है। __सामुदायिक उत्तरदायित्वों को अच्छे ढंग से निभाते हुए भी उसमें कर्त्तव्य भाव से निर्लिप्त रहने तथा निरपेक्ष वर्तन करने से मन शान्त और एकाग्र रहता है। इसी के साथ विशेष रूप से क्रोध एवं मान प्रबन्धन में यह उपयोगी है, क्योंकि मण्डली में नव दीक्षित मुनि के द्वारा उससे पूर्व दीक्षित उन सभी मुनियों को वन्दन किया जाता है जो भले ही आयु, ज्ञान, क्षयोपशम आदि में अल्प हो अथवा गृहस्थ अवस्था में उसके आश्रित रह चुका हो। मान कषाय को शमित करने का इससे श्रेष्ठ उपाय क्या हो सकता है ? इसी प्रकार प्रतिकूल परिस्थितियों में क्रोधादि आवेश पर भी नियन्त्रण रखना होता है, जिससे क्रोध प्रबन्धन की सीख मिलती है।
इस प्रकार मण्डली तप का अनुष्ठान जीवन को नियन्त्रित एवं सन्तुलित करने का श्रेष्ठ उपाय है।
मण्डली क्रिया की उपादेयता यदि वर्तमान समस्याओं के परिप्रेक्ष्य में देखी जाए तो इसके द्वारा व्यक्तिगत समस्याएँ जैसे कि मन-वचन-काया की चंचलता, संकल्पशक्ति की कमजोरी आदि को दूर किया जा सकता है। समूह में रहने से