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130... जैन मुनि के व्रतारोपण की त्रैकालिक उपयोगिता
करने से साधना के प्रति जागरुकता रहती है । प्रमाद आदि दोष पैदा भी हो जाएँ तो शीघ्र दूर हो जाते हैं। समूह में रहने से वैयक्तिक कर्त्तव्यों एवं उत्तरदायित्वों का भान रहता है। एकाकी साधना करते हुए मन संयम से उचट सकता है जबकि समुदाय में रहने पर संयम पालन में अधिक दृढ़ता आती है । सामूहिक रूप से किया गया अध्ययन तथा सूत्र - अर्थ आदि अधिक स्थायी होते हैं। मण्डली प्रवेश हेतु जो तप करवाया जाता है उसमें साधक अभिरुचि की तारतम्यता के अनुसार उसकी संयम निष्ठा का ज्ञान होता है।
यदि मण्डली अनुष्ठान के वैयक्तिक लाभ के बारे में सोचें तो समूह में रहने के कई लाभ हैं। यद्यपि मण्डली विधि आगमोक्त नहीं है, परन्तु घटते मनोबल एवं आत्मबल को देखते हुए गीतार्थ गुरुओं द्वारा 8वीं शती के आस पास इसका उल्लेख प्राप्त होता है ।
मण्डली तप के द्वारा नूतन दीक्षित संयम के क्षेत्र में अपना वैयक्तिक परीक्षण करता है। मण्डली में सम्मिलित होने पर कनिष्ठ साधु अतिरिक्त चिन्ताओं से मुक्त हो जाते हैं। परिपक्व एवं स्थविर साधुओं के साथ रहने से ज्ञान-ध्यान-संयम आदि सभी में वृद्धि होती है तथा उनकी सेवा आदि का भी लाभ प्राप्त होता है। प्रतिक्रमण आदि क्रियाएँ सामुदायिक हो तो स्वकृत दोषों की आलोचना की जा सकती है । नूतन दीक्षित आदि को अपनी परम्परा का समुचित ज्ञान होता है।
यदि सामाजिक परिप्रेक्ष्य में मण्डली विधि की उपयुज्यता देखें तो यह व्यवहार जगत से प्रेरित विधि लगती है। इससे पूर्वकाल में जो संगठित परिवार का प्रचलन था उसकी पुष्टि होती है। किसी योग्य मुनि के मण्डली में प्रविष्ट होने पर वह कई लोगों को धर्म में जुड़ने की प्रेरणा आदि देकर संयम मार्ग पर ला सकता है, कई नास्तिकों को आस्तिक बना सकता है जिससे जिन धर्म की प्रभावना होती है। नव दीक्षित साधु-साध्वी के परिवार एवं परिचित आदि भी धर्म से जुड़ते हैं। मण्डली प्रवेश से यह तथ्य भी स्पष्ट हो जाता है कि संयमी जीवन में प्रविष्ट होना कोई सामान्य खेल नहीं, अपितु एक कठोर साधना है। समुदाय या संगठन में रहने से जिनशासन का अधिक प्रचार-प्रसार होता है। समाज में भी संगठन बढ़ता है।
यदि मण्डली तप विधि का प्रभाव प्रबन्धन के क्षेत्र में देखें तो यह योगानुष्ठान समूह संचालन, सामूहिक जीवन आदि में विशेष रूप से अपनी