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110...जैन मुनि के व्रतारोपण की त्रैकालिक उपयोगिता नव्य युग के..... किया जाता है। तीसरा तथ्य यह है कि अब तुम जिस मार्ग पर बढ़ रहे हो वह वीरों का मार्ग है, वीर अपना शिरोच्छेद करवा देता है, परन्तु अपने मार्ग एवं वचन से नहीं मुड़ता, वैसे ही तुम्हें अब इस संसार में प्रत्यावर्त्तन नहीं करना है।
इस सन्दर्भ में एक कथानक भी प्रसिद्ध है। एक बार किसी अन्य परम्परा में दीक्षित शिष्य किसी जैन मुनि के पास दीक्षा लेने आया तब उस साधु ने दीक्षा में विघ्न उपस्थित करने हेतु प्रयास किया। ऐसी स्थिति में जिन धर्म की महिमा, सामर्थ्य एवं शक्ति को सिद्ध करने के लिए गुरु ने दो तलवारें ओढ़ी के आगे रखवा दी ताकि वह साधु उपकरणों को क्षत-विक्षत न कर सकें और यदि कोई ऐसी मानसिकता से विघ्न करेगा तो इन तलवारों से उसका सिरच्छेद हो जाएगा। इस प्रकार सम्भवतः विघ्न निवारण हेतु असि युगल का प्रयोग किया जाता है।
दीक्षामण्डप में परिवारजनों की अनुमति आवश्यक क्यों? आचार्य जिनप्रभसूरि ने 'विधिमार्गप्रपा' में दीक्षा ग्रहण से पूर्व परिवारजनों की अनुमति ग्रहण का उल्लेख किया है, परन्तु यह परम्परा मध्यकाल में प्रचलन में आई ऐसा प्रतीत होता है। यदि आगम युग की बात करें तो यह परम्परा आवश्यक रूप में नहीं थी, आज्ञा ली जाती थी और नहीं भी। जैसे कि ऋषभदेव के पास दीक्षा लेने से पूर्व सुन्दरी ने भरत से आज्ञा लेने के लिए बारह हजार वर्ष तक इन्तजार किया। उधर बाहुबली आदि बिना किसी की आज्ञा से दीक्षित हो गये। ऐसे ही भगवान महावीर के समवसरण में गौतम स्वामी आदि को तो अनुमति हेतु भेजने का उल्लेख नहीं है, परन्तु अतिमुक्तकुमार, मेघकुमार आदि को अनुमति लेने के लिए भेजा गया। इसका एक कारण यह हो सकता है कि जो स्वयं निर्णय लेने में समर्थ होते थे, किसी के अधीनस्थ नहीं होते थे, उन्हें वैराग्य उत्पन्न होते ही अनुमति के बिना भी दीक्षित कर दिया जाता था, परन्तु अतिमुक्त जैसे बालकों को तथा मेघकुमार आदि युवा राजकुमारों को आज्ञा ग्रहण के बाद दीक्षित किया जाता था ताकि बाद में मोहवश कोई उपद्रव उपस्थित न हो। . ___ यदि वर्तमान परम्परा पर दृष्टिपात करें तो वर्तमान में अनुमति ग्रहण को आवश्यक माना गया है। अपवाद रूप में कोई उत्कृष्ट वैराग्यधारी हो और उसे मोहवश या स्वार्थवश परिवारजन आज्ञा न दे रहे हों अथवा उसके घर वाले कोई उपद्रव उपस्थित नहीं करेंगे, ऐसा विश्वास हो तो बिना अनुमति के भी दीक्षा दी