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106... जैन मुनि के व्रतारोपण की त्रैकालिक उपयोगिता नव्य युग के ......
का नाश होता है और क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य आदि गुणों का विकास होता है।93 यदि दीक्षित होने वाला उच्चकुलीन हो, तो गुणप्रधान नाम सुनने मात्र से मुनि जीवन के गुणों को प्रकट करने का पुरुषार्थ प्रबल हो जाता है और पुरुषार्थ के बल पर वे गुण प्रकट भी हो जाते हैं। इस प्रकार शुभ नामादि का न्यास करना ही दीक्षान्यास है। यह दीक्षान्यास मोक्षपद प्राप्ति का अचूक उपाय है। इस प्रकार नाम परिवर्तन के अनेक प्रयोजन हैं ।
एक उल्लेखनीय तथ्य यह है कि नाम आदि का न्यास अपनी सामाचारी के अनुसार किया जाना चाहिए, क्योंकि स्व सामाचारी का पालन करने से दीक्षित व्यक्ति का जीवन विघ्नरहित होता है | 94 आचार्य हरिभद्रसूरि ने कहा है कि दीक्षित का नामकरण स्वयं के सम्प्रदाय के अनुसार किये जाने पर उपद्रव नहीं होते हैं। 95
आत्मरक्षा का विधान किसलिए ? सम्यक्त्वव्रत, बारहव्रत, दीक्षा आदि के प्रसंग पर गुरु द्वारा आत्मरक्षा की विधि की जाती है। यह प्रक्रिया दीक्षादि ग्रहण की मूल विधि प्रारम्भ करने से पूर्व होती है। इस विधि-क्रिया में गुरु सर्वप्रथम स्वयं की आत्मरक्षा करते हैं। उसके पश्चात व्रतग्राही शिष्य की आत्मरक्षा करते हैं।
यह विधान अशुभ उपद्रवों का उपशमन, आसुरी शक्तियों का विध्वंसन, एवं भाव परिवर्तन के ध्येय से किया जाता है।
समवशरण की पूजा क्यों करें? यह दीक्षाग्रहण का प्रारम्भिक चरण है कि दीक्षार्थी दीक्षा दिन में समवसरणस्थ जिनबिम्ब की पुष्प- नैवेद्यादि द्वारा विशिष्ट पूजा करे। यहाँ पूजा करने का आशय अरिहन्त परमात्मा के प्रति बहुमान प्रकट करते हुए मंगलकार्य को सिद्ध करना है।
जैन- विचारणा में उत्तम कार्य की सिद्धि के लिए मन की पवित्रता को आवश्यक माना गया है। यह पवित्रता देव गुरु-धर्म की भक्ति-आराधना करने से जीव में प्रकट होती है, अतः प्रत्येक शुभ कार्य के प्रारम्भ में देवपूजन, गुरुदर्शन, नमस्कारमन्त्र का स्मरण आदि करना व्यवहारतः भी देखा जाता है।
अरिहन्त परमात्मा की पूजा-अर्चना करना लोकोत्तर मंगल भी है। इस मंगल के माध्यम से कार्य की सिद्धि में आने वाले विघ्न दूर होते हैं। कितनी बार मंगल करने पर भी कार्य सिद्धि नहीं होती, उस समय विघ्न बलवान है, ऐसा