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________________ प्रव्रज्या विधि की शास्त्रीय विचारणा... 105 प्रश्न किये जाने पर कि व्रत प्रतिज्ञा के अवसर पर शास्त्रविहित आचार कौन सा है, जिस आचार का पालन करने से 'दीक्षान्यास हुआ' ऐसा कहा जा सकता है? आचार्य हरिभद्रसूरि ने इसके समाधान में कहा है कि गुरु द्वारा जीत व्यवहार के अनुसार दीक्षा-सम्बन्धी नाम, स्थापना, द्रव्य, भाव इन चार निक्षेपों का आरोपण करना दीक्षान्यास कहलाता है। यही तात्त्विक एवं शास्त्रीय दीक्षा है। नामकरण करना नाम दीक्षा है। रजोहरण आदि धारण करना स्थापना दीक्षा है। आचारांगादि श्रुत पढ़ना या प्रतिलेखन, प्रमार्जन, प्रतिक्रमण आदि क्रियाएँ करना द्रव्य दीक्षा है। सम्यक्त्व भावों का प्रकर्ष होना, निर्मल अध्यवसायों का बने रहना भाव दीक्षा है। ध्यातव्य है कि दीक्षित का नाम गुणसूचक हो, क्योंकि गुणसूचक नामादि रखने से चार प्रकार के विशिष्ट लाभ प्राप्त होते हैं - 1. कीर्ति - यदि विशिष्टगुणसूचक या सार्थक नाम हो, तो केवल नाम लेने मात्र से ही शब्दार्थ का ज्ञान होने से विद्वज्जन और सामान्य लोगों का मन प्रसन्न हो जाता है, उससे उस दीक्षित की कीर्ति (प्रशंसा) फैलती है। 2. आरोग्य प्राप्ति - रजोहरण, मुखवस्त्रिका आदि के रूप में गृहीत स्थापना दीक्षा द्वारा भावगर्भित आरोग्य की उत्पत्ति होती है यानी शुभ अध्यवसायों के द्वारा आत्मा निरोग बनती है। ___3. स्थिरतावृद्धि - द्रव्य दीक्षा यानी आचारांग आदि श्रुत तथा अभ्यासपूर्वक की जाने वाली साधु जीवन की क्रियाएँ व्रत को स्थिर रखने में निमित्त बनती हैं। 4. पदसम्प्राप्ति - सम्यग्दर्शनादि रूप भाव दीक्षा विशिष्ट आचार्यादि पद उपलब्ध करवाने में निमित्त बनती है। सामान्यतया नामादि का न्यास कीर्ति, आरोग्य और मोक्ष (ध्रुवपद) प्राप्ति का सूचक है।92 विधिपूर्वक नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव इन चारों का आरोपण करने से दृढ़प्रतिज्ञाधारी व्यक्ति सोचता है कि मैं दीक्षित बना हूँ, अब मुझे हिंसा, झूठ, चोरी आदि पाप नहीं करने चाहिए, जिनाज्ञा-गुर्वाज्ञा के अनुसार ही जीवन जीना चाहिए, इत्यादि संस्कार उत्पन्न होते हैं। उससे वह भावदीक्षा को सम्प्राप्त कर लेता है। तथाविध शुभ संस्कारों के कारण वह गुरु के प्रति समर्पित रहता है। गुरु वचनानुसार जीवन जीता है। उसके फलस्वरूप पापरुचि, पापक्रिया एवं पापकर्म
SR No.006241
Book TitleJain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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