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प्रव्रज्या विधि की शास्त्रीय विचारणा... 103 चोटीग्रहण क्यों? श्वेताम्बर-परम्परा में दीक्षा के दिन, दीक्षित का मुण्डन नाई के द्वारा करवाया जाता है, किन्तु शिखा स्थान पर कुछ केश रख दिये जाते हैं जिन्हें शुभलग्न में गुरु द्वारा ग्रहण किये जाते हैं, उसे चोटी ग्रहण कहते हैं। इसे शास्त्रीय भाषा में 'केशचन' कहा जाता है, किन्तु यहाँ चोटी जितने केश ग्रहण किये जाने से 'चोटीग्रहण' नाम अधिक सार्थक है।
__मस्तक के जिस भाग से चोटीग्रहण की जाती है वह मूलस्थान सहस्रार चक्र का माना गया है। उस चक्र स्थान पर दबाव पड़ने से ज्ञानकेन्द्र जागृत होता है तथा अनेक प्रकार की शक्तियाँ प्रकट होती हैं। चूँकि सहस्रारचक्र साधना की पूर्णाहुति का केन्द्र माना गया है। इस चक्र के अनावृत्त होने पर ही केवलज्ञान रूपी दीपक प्रज्वलित होता है। सहस्रारचक्र शरीर का सर्वोच्च भाग है अत: सद्ज्ञान को प्रगट करने के लिए शिखा ग्रहण का विधान है।
दिगम्बर परम्परा में तो दीक्षा के दिन भी मस्तक मुण्डन न करवाकर सम्पूर्ण लोच करते हैं ताकि दीक्षा के प्रारम्भ दिन से ही कष्ट-सहिष्णुता एवं सद्ज्ञान की विशिष्ट साधना के द्वार खुल जायें।
दूसरा प्रयोजन यह माना जा सकता है जैसे वस्त्र-आभूषणादि शरीर की शोभा है, शील सती की शोभा है, सदाचार सज्जनों की शोभा है, समता साधक की शोभा है, वैसे ही केश सिर की शोभा है, किन्तु संयमी जीवन में विशेषकर बाह्य शोभा का त्याग करना होता है, अत: केश-त्याग आवश्यक है। इस प्रकार बाह्य शोभा का त्याग करने के लिए मस्तक मुण्डन एवं चोटीग्रहण का प्रावधान है। __तीसरा प्रयोजन शिष्य की कष्ट सहिष्णुता और समता भाव की साधना का परीक्षण भी माना जा सकता है। संक्षेप में शरीर शोभा का त्याग, अज्ञानावरण का विनाश, सद्ज्ञान का जागरण एवं समता की साधना का श्री गणेश करना चोटीग्रहण के मुख्य उद्देश्य हैं।
वेश परिवर्तन की आवश्यकता किस दृष्टि से? श्रमण संस्कृति की समग्र परम्पराओं में यह नियम सामान्य रूप से प्रवर्तित है कि संन्यास जीवन में प्रवेश करने से पूर्व वेश-परिवर्तन करना आवश्यक है। वेश के माध्यम से व्यक्ति का न केवल बाह्य जगत अपितु आभ्यन्तर जगत भी परिवर्तित होता है
यदि आकर्षक वेश-भूषा धारण कर ली जाये और व्यक्ति विषय-विकार से