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102...जैन मुनि के व्रतारोपण की त्रैकालिक उपयोगिता नव्य युग के.....
को संन्यास धारण का अधिकारी माना गया है। संन्यास कब धारण करना चाहिए? इस सम्बन्ध में अनेक मत हैं। मनु के अनुसार वेदाध्ययन, सन्तानोत्पत्ति एवं यज्ञ क्रिया के अनन्तर मोक्ष की चिन्ता करनी चाहिए। बौधायनधर्मसूत्र एवं वैखानसधर्मसूत्र के अनुसार वह गृहस्थ जिसे सन्तान न हो, पत्नी मृत्युलोक पहुंच चुकी हो या जिसके पुत्र धर्म-मार्ग में प्रवृत्त हो चुके हों या जो स्वयं सत्तर वर्ष से अधिक का हो, उसे संन्यास धारण करना चाहिए।88 ___ पूर्वोक्त विवेचन से यह फलित होता है कि जैन धर्म की मूर्तिपूजक परम्परा में दीक्षा विधि का स्वरूप सामान्यतया एक समान ही है। स्थानक एवं तेरापंथी परम्परा की दीक्षा विधि श्वेताम्बर शाखा से कुछ पृथक् है, किन्तु सामायिकव्रत ग्रहण का पाठ यथावत है। दिगम्बर परम्परा में सामान्य विधिपूर्वक दीक्षा प्रदान करते हैं। दीक्षा सम्बन्धी विधि-विधानों के रहस्य
श्वेताम्बर परम्परा में प्रव्रज्या ग्रहण के समय अनेक विधि-विधान सम्पन्न किये जाते हैं। उनमें कुछ के प्रयोजन निम्न प्रकार हैं
रजोहरण का उपयोग किसलिए? रज + हरण इन दो शब्दों के संयोग से रजोहरण निष्पन्न है। रज यानी धूल, हरण यानी दूर करने वाला। इसके दो अर्थ किये जा सकते हैं। प्रथम अर्थ के अनुसार बाह्य धूलादि को दूर करने वाला तथा द्वितीय अर्थ के अनुसार जीव के साथ बंधने वाली कर्म रूपी आभ्यन्तर रज को दूर करने वाला उपकरण रजोहरण कहलाता है।89
जैन परम्परा में रजोहरण का दूसरा अर्थ विशेष महत्त्वपूर्ण माना गया है, किन्तु व्यावहारिक दृष्टि से तो प्रथम अर्थ भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है। रजोहरण जैन मुनियों का मुख्य उपकरण है। इसका उद्देश्य जीव रक्षा, संयम रक्षा और आत्म रक्षा है। मुनिधर्म के मुख्य उद्देश्य की सम्पूर्ति रजोहरण के माध्यम से सहज सम्भव होती है। ___ यद्यपि यह बाह्य लिंग है तथापि संयम-योग का कारण होने से दोनों ही दृष्टियों से उसका रजोहरण नाम सार्थक है।90 इस प्रकार अहिंसादि महाव्रतों का परिपालन एवं मुनि धर्म की समस्त चर्याओं का निर्दोष समाचरण करने के उदेश्य से रजोहरण प्रदान किया जाता है। रजोहरण प्रदान के अन्य प्रयोजन भी मननीय हैं।