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92...जैन मुनि के व्रतारोपण की त्रैकालिक उपयोगिता नव्य युग के..... उपलब्धि हेतु अपने कदम बढ़ा चुका है और इसी में आत्मानन्द की अनुभूति करने वाला है।
दीक्षा आत्म संयम, इन्द्रिय निग्रह और कषायों के उपशमन का जीवन है। इस जीवन शैली को स्वीकार करते समय जो कुछ विधि-विधान सम्पन्न किये जाते हैं, वह दीक्षा विधि कहलाती है।
यदि यह विचार किया जाए कि दीक्षा विधि का मूल स्वरूप कहाँ, किस रूप में उपलब्ध हो सकता है? तो जहाँ तक जैन आगमों का सवाल है, वहाँ प्रव्रज्या ग्रहण की सुव्यवस्थित विधि लगभग किसी भी आगम में उपलब्ध नहीं है। केवल आचारांग,71 ज्ञाताधर्मकथा,72 उपासकदशा,73 अनत्तरौपपातिक,74 प्रश्नव्याकरण,75 विपाकश्रुत आदि में संयम और तप द्वारा आत्मा को भावित करने के उल्लेख मिलते हैं। ज्ञाताधर्मकथा में प्रव्रज्या स्वीकार करने, निष्क्रमण के अभिमुख होने आदि के सूचन मिलते हैं, किन्तु संयम या प्रव्रज्या को किस प्रकार धारण किया जाता है, इसकी विधि निर्दिष्ट नहीं है।
जहाँ तक आगमेतर ग्रन्थों का प्रश्न है वहाँ नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, टीका साहित्य के अन्तर्गत निशीथभाष्य में अति संक्षिप्त विधि वर्णित है। उसमें गुरु द्वारा दीक्षार्थी को 'प्रव्रज्या क्यों ग्रहण कर रहे हो, वैराग्य भाव कैसे जागृत हुआ आदि प्रश्न पूछे जाने पर तथा उनका सन्तुष्टि जनक उत्तर मिलने पर उसे साधुचर्या से अवगत करवाया जाता है। फिर प्रव्रज्या के योग्य सिद्ध होने पर अपनी बायीं दिशा की ओर बिठाकर सामायिक व्रत का आरोहण करवाने निमित्त 'लोगस्ससूत्र' का कायोत्सर्ग, तीन बार सामायिक पाठ का उच्चारण, शिष्य द्वारा अनुशिष्टि को वन्दन इत्यादि विधान किये जाते हैं। गहराई से सोचा जाए तो वर्तमान में प्रचलित दीक्षा विधि की समस्त प्रक्रियाएँ इसमें सन्निहित हैं।78 ___यदि मध्यकालीन ग्रन्थों का अध्ययन किया जाए तो वहाँ आचार्य हरिभद्रसूरि (8वीं शती) के पंचवस्तुक, पंचाशकप्रकरण, षोडशकप्रकरण आदि ग्रन्थों में 'दीक्षा विधि' का सुव्यवस्थित स्वरूप परिलक्षित होता है।
तदनन्तर यह विवरण पादलिप्ताचार्यकृत निर्वाणकलिका (11वीं शती) में पढ़ने को मिलता है, किन्तु निर्वाणकलिका का अध्ययन करने से स्पष्ट होता है कि इसमें वर्णित दीक्षा विधि इसके पूर्ववर्ती एवं परवर्ती ग्रन्थों से बहुत कुछ अलग हट करके है तथा वर्तमान परम्परा में अप्रचलित है।