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________________ 50...जैन मुनि के व्रतारोपण की त्रैकालिक उपयोगिता नव्य युग के..... .. प्रयोजन यह है कि गृहस्थ धर्म का अनुसरण करते हुए सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान को तो समुपलब्ध किया जा सकता है, किन्तु सम्यक्चारित्र की प्राप्ति एवं उसकी परिपूर्णता दीक्षा के द्वारा ही सम्भव है। यद्यपि भाव चारित्र गृहस्थावस्था में भी हो सकता है, किन्तु द्रव्य चारित्र दीक्षित वेश में ही सम्भव है। तीसरा कारण ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर ऐसा जाना जाता है कि केवलज्ञान की प्राप्ति के लिए द्रव्य और भाव दोनों चारित्र अवश्यम्भावी होने चाहिए, अन्यथा भाव-चारित्री आत्मा के लिए द्रव्य-चारित्र को ग्रहण करना क्यों जरूरी होगा ? वह भावसंयम के द्वारा गृहस्थधर्म का पालन करते हुए भी केवलज्ञान और निर्वाणदशा को सम्प्राप्त कर सकता है, किन्तु शास्त्रों में ऐसा देखा-सुना नहीं गया है। केवलज्ञान का पूर्ववर्ती मनःपर्यवज्ञान भी मुनि को ही होता है गृहस्थ को नहीं। इस युक्ति से यह निर्विवादत: सिद्ध हो जाता है कि जब मनःपर्यव ज्ञान के लिए भी मुनि पद होना जरूरी माना गया है, तब केवलज्ञान के लिए मुनित्व की अपरिहार्यता स्वत: सिद्ध है। अत: दीक्षा ग्रहण का एक प्रयोजन मुनित्व दशा की उपलब्धि है। दीक्षा अंगीकार का प्रमुख उद्देश्य धर्मसाधना के अनुकूल वातावरण में स्वयं को समुपस्थित करना भी है। यद्यपि गृहस्थ धर्म का अनुकरण करते हुए अनासक्त जीवन जिया जा सकता है, किन्तु वर्तमान की भौतिक सुख-सुविधाओं के बीच रहते हुए साधना मार्ग के उच्च एवं चरम सोपानों पर आरूढ़ होना असम्भव है जबकि दीक्षित व्यक्ति के लिए सब कुछ सम्भव हो सकता है। संसारी व्यक्ति पारिवारिक सम्बन्धों और मोह-ममता का पूर्णत: त्याग नहीं कर सकता। चूंकि उसे उसी वातावरण में जीना पड़ता है, जबकि गृहत्यागी मोह-ममत्व से कोसों दूर रहता है। अत: विशुद्ध साधना का अभ्यास दीक्षित जीवन में ही शक्य है, इस दृष्टि से भी संन्यास ग्रहण की अनिवार्यता सुस्पष्ट है। दीक्षा यह विशिष्ट त्याग की उच्चतम भूमिका है। जो भव्य मुमुक्षु अपने अन्तरतम में रहे हुए आत्मतत्त्व से साक्षात्कार करने की समीहा रखता है, उसके लिए यही मार्ग श्रेयस्कर है। जो लोग दीक्षा का कारण जानना चाहते हैं, उनको दीक्षा के अन्दर में समाहित तत्त्वों को भी जानना होगा। अपनी आत्मा को उच्चतम भूमिका पर पहुँचाने के लिए दीक्षा सर्वश्रेष्ठ साधना है। साध्य को पाने के लिए साधन भी तदनुरूप ही होना चाहिए। जहाँ साध्य हमारा मुक्ति या
SR No.006241
Book TitleJain Muni Ke Vrataropan Ki Traikalik Upayogita Navyayug ke Sandarbh Me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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