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26... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक
का चतुर्थ कर्त्तव्य है। पर्वादि दिनों में नियम से करोड़ों देवी-देवता अपने सुख भोगों का त्याग कर अरिहंत परमात्मा का जन्माभिषेक महोत्सव मनाने के लिए मेरूपर्वत आदि स्थानों पर जाते हैं और पवित्र तीर्थजलों द्वारा जिनप्रतिमा का स्नात्र कर जीवन को धन्य-धन्य मानते हैं अतः इस शाश्वत परम्परा का निर्वाह करने के लिए भव्य आत्माओं द्वारा एक बार निश्चित रूप से बृहत् स्नात्रमहोत्सव किया जाना चाहिए। उपदेशप्रासाद में वर्णन आता है कि श्रावक पेथडशाह ने रैवतगिरि ( गिरनार ) तीर्थ पर स्नात्रमहोत्सव में छप्पन घड़ी परिमाण स्वर्ण की उजवणी कर इन्द्रमाल पहनी थी और शत्रुंजय से गिरनार पर्वत तक एक स्वर्णध्वज चढ़ाया था। उसके पश्चात् उसके पुत्र शाह झांझण ने रेशमी वस्त्र का तिगुना ध्वज चढ़ाया था 1 54
5. देवद्रव्यवृद्धि - जिस प्रकार वाहन को गतिशील बनाए रखने के लिए ऊर्जा-प्रदायक स्थान सहायक होते हैं, उसी प्रकार जीवन सन्मार्ग की ओर बढ़ता रहे, तदर्थ जिनालय आदि धार्मिक स्थल होना अत्यन्त जरूरी है। जिनमंदिरों की परम्परा निरन्तर चलती रहे, इस उद्देश्य से धर्मानुयायी श्रावकों को प्रतिवर्ष तीर्थमाला, उपधानमाला, इन्द्रमाला आदि पहननी चाहिए। इससे देवद्रव्य की वृद्धि होती है । जैसा कि एक बार गिरनार तीर्थ पर श्वेताम्बरी और दिगम्बरीदोनों का आपसी विवाद हुआ। उस समय यह निर्णय लिया गया कि जो चढ़ावा लेकर इन्द्रमाला पहनेगा, यह तीर्थ उसी का माना जाए गा । उस समय पेथ शाह ने छप्पन घड़ी परिमाण स्वर्ण द्वारा इन्द्रमाला पहनी और चार घड़ी स्वर्ण याचकों को देकर तीर्थ अपना किया। इस प्रकार शुभविधिपूर्वक देवद्रव्य की वृद्धि करना चाहिए। 55
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6. महापूजा - प्रत्येक वर्ष शुभ भावों की वृद्धि हेतु जिनमंदिर में एक महापूजा करवाना-यह श्रावक के प्रमुख कर्त्तव्यों में से एक है।
7. रात्रिजागरण - प्रतिवर्ष एक बार तीर्थस्थलों पर, पर्वादि प्रसंगों पर या शुभ अवसर पर रात्रि जागरण करना चाहिए। रात्रिजागरण के द्वारा परमात्मा के प्रति अनुराग एवं भक्ति बढ़ती है।
8. श्रुतभक्ति - प्रतिदिन श्रुतज्ञान की भक्ति करना । यदि प्रतिदिन श्रुतभक्ति करने में अशक्त हों, तो प्रतिमास या प्रतिवर्ष तो अवश्य करना चाहिए। श्रुतभक्ति द्वारा हित-अहित की बुद्धि विकसित होती है तथा ज्ञानावरणीयकर्म का क्षयोपशम होता है।