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20... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक
सम्मान और सन्तोष नष्ट हो जाते हैं । उसका मन सदा भय से आक्रान्त रहता है। उसका मन 'और अधिक कैसे प्राप्त करूँ' की लालसा में भटकता रहता है । अतः आध्यात्मिक मार्ग पर आगे बढ़ने वाले साधकों को इस कुकृत्य का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए।
7. परस्त्रीगमन- परस्त्री से तात्पर्य स्वयं की पत्नी के अतिरिक्त अन्य सभी स्त्रियों से है। परस्त्री के साथ उपभोग करना, वासना की दृष्टि से देखना, क्रीड़ा करना, प्रेम पत्र लिखना, स्वयं के अधीनस्थ करने के लिए विविध उपहार देना आदि क्रियाएँ परस्त्री - सेवन कहलाती हैं।
हानि- सामाजिक, धार्मिक और नैतिक- सभी दृष्टियों से परस्त्री सेवन हानिप्रद है। परस्त्री सेवन करने वाला व्यक्ति समाज में अविश्वास का पात्र बनता है। उसे लोग कुत्सित एवं निन्दित दृष्टि से देखते हैं। वह वासनाओं की आग में इतना भभक उठता है कि सत्य-असत्य, उचित-अनुचित, विवेकअविवेक सब कुछ भूल जाता है। सामाजिक नियम, पारिवारिक कर्त्तव्य, जीवन जीने की कला, आवश्यक धर्म- क्रियाएँ आदि से उसका कोई सम्बन्ध नहीं रहता है। वह सब जगह से टूटता चला जाता है तथा विषयेच्छा की तृप्ति के लिए सदैव असंतुष्ट हुआ घूमता रहता है। इस वर्णन से यह निश्चित होता है कि परस्त्री सेवी कभी भी साधना के मार्ग पर आगे नहीं बढ़ सकता है अतः साधक पुरूष को परस्त्रीगमन का सर्वथा परिहार करना चाहिए ।
निष्पत्ति - जैन साधना पद्धति में व्यसन मुक्ति को साधना के महल में प्रवेश करने का प्रथम द्वार बताया है। जब तक व्यक्ति दुर्व्यसनों से मुक्त नहीं होता तब तक उस मनुष्य के जीवन में गुणों का विकास नहीं हो सकता है इसलिए जैनाचार्यों ने व्यसनमुक्ति पर अत्यधिक बल दिया है। लोकतान्त्रिक शासन व्यवस्था में व्यसनमुक्ति एक ऐसी विशिष्ट आचार पद्धति है जिसके परिपालन से गृहस्थ सदाचारमय जीवन यापित कर सकता है तथा राष्ट्रीयविकास के कार्यों में भी सक्रिय योगदान दे सकता है। यह एक ऐसी आचार संहिता है जो केवल जैन गृहस्थों के लिए ही नहीं, किन्तु मानव मात्र के लिए उपयोगी है।42
जैन श्रावक के अनिवार्य कर्त्तव्य
जैन साधक गृहस्थ धर्म की अनुपालना करते हुए आत्मदिशा की ओर अग्रसर हो सके तथा जिन शासन की प्रभावना करते हुए राष्ट्र, समाज एवं