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________________ जैन गृहस्थ के प्रकार एवं उसकी धर्माराधना विधि ...7 व्रतग्रहण के प्रकारों को लेकर भी गृहस्थ एवं श्रमण की साधना में अन्तर देखा जा सकता है। श्रमण पंच महाव्रतों को नवकोटि सहित ग्रहण करते हैं, जबकि गृहस्थ पाँच अणुव्रतों को छ: से लेकर दो कोटियों के मध्य ग्रहण करते हैं। श्रमण के व्रत में किसी प्रकार के विकल्प या अपवाद नहीं होते हैं, किन्तु गृहस्थ व्रतों को ग्रहण करते समय अपनी क्षमता एवं मानसिकता के अनुसार विकल्प रख सकता है। इससे सुनिश्चित है कि गृहस्थ की साधना वैकल्पिक होती है। इस साधना का अनुपालन सामर्थ्य के अनुसार एवं यथेच्छा से किया जा सकता है, जबकि मुनि की साधना सर्वांश होती है तथा इस साधना के लिए किसी प्रकार की छूट नहीं रखी जाती है। जैन ग्रन्थों में व्रतग्रहण की नौ कोटियाँ इस प्रकार कही गईं हैं- 1. मनसाकृत 2. मनसाकारित 3. मनसा-अनुमोदित 4. वाक्कृत 5. वाक्कारित 6. वाक्-अनुमोदित 7. कायकृत 8. कायकारित 9. काय-अनुमोदित। गृहस्थ साधक अनुमोदना की प्रक्रिया से नहीं बच सकता है अत: उसका व्रतग्रहण दो से छः कोटियों के मध्य ही होता है। डॉ. सागरमल जैन ने कहा है कि कुछ जैन सम्प्रदायों ने श्रावक के व्रत ग्रहण में आठ कोटियों को स्वीकारा है तथा गुजरात के स्थानकवासी जैन सम्प्रदाय में आठ कोटि और छ: कोटि के प्रश्न को लेकर दो उपसम्प्रदायों का भी निर्माण हुआ है। सार रूप में कहा जा सकता है कि गृहस्थ और श्रमण की साधना के अन्तर का मुख्य आधार द्रव्यचारित्र है और व्रत ग्रहण सम्बन्धी वैकल्पिक कोटियाँ हैं। भावनात्मक साधना या भावचारित्र की अपेक्षा दोनों में कोई विशेष अन्तर नहीं है। जैनधर्म में गृहस्थ साधना का महत्त्व जैनदर्शन में सिद्धावस्था को प्राप्त करने के पन्द्रह प्रकार तदनुसार गृहस्थ साधक भी सिद्ध पद को उपलब्ध कर सकता है। यह सत्य है कि श्रमण की अपेक्षा गृहस्थ जीवन की साधना निम्न कोटि की होती है। तदुपरान्त वैयक्तिक दृष्टि से कुछ गृहस्थ साधकों को श्रमण साधकों की अपेक्षा साधना मार्ग पर श्रेष्ठ माना गया है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि कुछ गृहस्थ भी श्रमणों की अपेक्षा संयम परिपालन में श्रेष्ठ होते हैं।
SR No.006240
Book TitleJain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, C000, & C999
File Size37 MB
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