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________________ 6... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक .... श्रमण और गृहस्थ की साधना में अन्तर पूर्वोक्त विवेचन से यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि श्रुतधर्म की अपेक्षा से गृहस्थ एवं मुनि की साधना में कोई विशेष अन्तर नहीं है। यह वर्गीकरण चारित्रधर्म की दृष्टि से किया गया है। सम्यक्चारित्र के भी भावचारित्र और द्रव्यचारित्र-ऐसे दो भेद हैं। इनमें भी भावचारित्र दोनों में संभव हो सकता है क्योंकि गृहस्थ प्रशस्त भावना वाला तो हो सकता है, किन्तु द्रव्यचारित्र का ग्रहण गृहस्थ साधक के लिए परिस्थिति एवं क्षमता सापेक्ष है अत: द्रव्यचारित्र के आधार पर ही गृही-साधना और मनि-साधना का विभाजन होता है। व्रतपालन की दृष्टि से देखें तो गृहस्थ एवं मुनि-दोनों ही अहिंसा का पालन करते हैं, सत्य बोलते हैं, ब्रह्मचर्य के नियमों का पालन करते हैं, परिग्रह की मर्यादा करते हैं, किन्तु गृहस्थ इन सभी का आंशिक पालन ही कर सकने में समर्थ होता है, जबकि श्रमण उनका पूर्ण रूपेण परिपालन कर सकता है। इसके अतिरिक्त समिति-गुप्ति का पालन, आर्त-रौद्र ध्यान का परित्याग, परीषह सहन, क्षमा-संतोष आदि उत्तम धर्मों का आचरण करना, भावचारित्र की अपेक्षा दोनों में समान ही है। षडावश्यक क्रिया एवं संलेखना ग्रहण का विधान भी दोनों साधकों के लिए लगभग समान है। गृहस्थ और श्रमण इन दोनों में महत्त्वपूर्ण अन्तर क्रमश: अणुव्रतों एवं महाव्रतों को लेकर है। उदाहरणार्थ- श्रमण त्रस एवं स्थावर सभी प्रकार के जीवों की हिंसा का परित्याग करता है, जबकि गृहस्थ मात्र संकल्प युक्त त्रस हिंसा का ही त्यागी होता है। श्रमण पूर्णत: ब्रह्मचर्य का पालन करता है, जबकि गृहस्थ स्वपत्नीसन्तोष का व्रत लेता है। श्रमण समस्त परिग्रह का त्यागी होता है, जबकि गृहस्थ परिग्रह की सीमा निश्चित करता है। श्रमण झूठ न बोलने की सर्वथा प्रतिज्ञा करता है, जबकि गृहस्थ गृहकार्य सम्बन्धी, व्यापार सम्बन्धी झूठ बोलने की छूट रखता है। गृहस्थ के गुणव्रतों और शिक्षाव्रतों को लेकर भी दोनों में अन्तर देखा जाता है। श्रमण यावज्जीवन सामायिकव्रत में रहता है, जबकि गृहस्थ निश्चित अवधि के लिए ही सामायिकव्रत को ग्रहण करता है। श्रमण जीवन भर के लिए आभूषण, विलेपन, उबटन, पुष्पधारण आदि कई प्रकार की भोगोपभोग सम्बन्धी वस्तुओं का परित्याग करता है, जबकि गृहस्थ उन वस्तुओं की मर्यादा रखता है। इस प्रकार गृहस्थ एवं श्रमण में व्रतपालन की दृष्टि से अन्तर है।
SR No.006240
Book TitleJain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, C000, & C999
File Size37 MB
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