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उपासकप्रतिमाराधना विधि का शास्त्रीय विश्लेषण 449
• व्रतप्रतिमा का लक्ष्य अणुव्रतों की प्राप्ति द्वारा आत्मा के प्रशस्त परिणामों को जाग्रत करना और जीवदया, धर्मशास्त्रश्रवण, आदि क्रियाओं में विशेषता प्रकट करना है।
• सामायिकप्रतिमा देशविरति के परिणाम उत्पन्न करने, समत्वभाव में सजग रहने एवं समत्व की अवस्थिति बनाए रखने के प्रयोजन से की जाती है।
• पौषधप्रतिमा का प्रयोजन आत्मभावों का पुष्ट करना है ।
• कायोत्सर्गप्रतिमा का उद्देश्य अनावश्यक प्रवृत्तियों से बचे रहना और रसनेन्द्रिय को नियन्त्रित करना है।
आठवीं आरम्भवर्जनप्रतिमा का उद्देश्य पारिवारिक एवं व्यापारिक पापजन्य कार्यों से निर्लेप रहना है।
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• नौवीं प्रेष्यवर्जनप्रतिमा ममत्वबुद्धि का क्षय करने, लोक- व्यवहार से निवृत्त होने एवं भवभोगों से भय बुद्धि उत्पन्न करने के लिए स्वीकार की जाती है।
• दसवीं उद्दिष्टवर्जनप्रतिमा स्व स्वरूप में स्थित होने एवं जीवादि सूक्ष्मपदार्थों का सतत चिन्तन करते रहने के प्रयोजन से ग्रहण की जाता है।
• ग्यारहवीं श्रमणभूतप्रतिमा श्रमणतुल्य जीवन का अभ्यास करने के उद्देश्य से स्वीकार जाती है। यह प्रतिमाधारी केवल मन से ही नहीं, काया से भी चारित्रधर्म का पालन करता है।
इस प्रकार हम पाते हैं कि प्रत्येक प्रतिमा का प्रयोजन भिन्न-भिन्न और पूर्णतः आध्यात्मिक है 186
तुलनात्मक विवेचन
यदि उपासकप्रतिमा विधि का तुलनापरक विवेचन करना चाहें, तो इस सम्बन्ध में मुख्य रूप से दो ग्रन्थ ही उपलब्ध होते हैं
1. तिलकाचार्यसामाचारी और 2. आचारदिनकर । इन द्विविध ग्रन्थों में इस विधि का प्रारम्भिक, विकसित एवं सुनिश्चित स्वरूप सम्यक् रूप से प्रतिपादित है। प्रायः आगम और आगमेतर - साहित्य में जहाँ कहीं 'प्रतिमा' का वर्णन है, वहाँ मात्र स्वरूप आदि की ही चर्चा की गई है अत: सुनिश्चित है कि इस विधि