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444... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक ....
उपासक प्रतिमाओं का ऐतिहासिक परिशीलन
साधकीय जीवन में रहते हुए कुछ विशिष्ट प्रतिज्ञाएँ, अभिग्रह या नियम धारण करना 'प्रतिमा' कहलाता है। प्रतिमाएँ स्वीकार करने पर किंचित् अर्थों में श्रावक श्रमण तुल्य हो जाता है। वह ज्यों- ज्यों इस भूमिका में आगे बढ़ता जाता है, त्यों-त्यों उसका आध्यात्मिक स्तर भी विकसित होता जाता है।
जैन परम्परा में गृहस्थ श्रावक को उच्चकोटि की साधना में प्रवेश देने के लिए प्रतिमाएँ धारण करवाई जाती है। इस विधि के द्वारा यह निश्चित किया जाता है कि वह व्यक्ति गृहस्थ जीवन में रहता हुआ भी श्रमणतुल्य साधना-मार्ग पर आरूढ़ हुआ है, मुनि जीवन की निकटतम भूमिका को उपलब्ध करने में प्रयत्नशील बना है तथा गृहस्थ-जीवन के व्यापारिक, पारिवारिक एवं सामाजिक-दायित्वों से मुक्त होने का उपक्रम प्रारम्भ कर चुका है।
प्रश्न उभरता है कि प्रतिमा रूप साधना विधि का प्रारम्भ कब से हुआ? यदि हम प्राचीन जैन-आगमों को देखें, तो इन प्रतिमाओं का प्राथमिक स्वरूप समवायांगसूत्र1 में दर्शित होता है, जहाँ ग्यारह प्रतिमाओं का संक्षिप्त वर्णन किया गया है। उसके बाद श्रावकाचार का प्रतिनिधि ग्रन्थ उपासकदशांगसूत्र/2 में एक से ग्यारह प्रतिमाओं को ग्रहण करने के संकेत मिलते हैं, यद्यपि अतिरिक्त स्वरूपादि की कोई चर्चा उसमें नहीं है। उसके बाद दशाश्रुतस्कंधसूत्र'3 में ग्यारह प्रतिमाओं का सम्यक् वर्णन प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त आगम साहित्य में तत्सम्बन्धी कोई चर्चा प्राप्त नहीं होती हैं। दशाश्रतस्कंध में भी प्रतिमाओं का स्वरूप, प्रतिमाओं का काल आदि का ही निरूपण है, प्रतिमाधारण-विधि से सम्बन्धित कोई चर्चा नहीं की गई है।
यदि हम आगम-युग के अनन्तर नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि और टीका ग्रन्थों को देखें, तो उपासकदशांग टीका4 में इन प्रतिमाओं का सुविस्तृत स्वरूप उपलब्ध होता है, किन्तु इसमें भी विधि-विधान सम्बन्धी कोई प्रकरण पढ़ने में नहीं आया है। यदि प्राचीन आचार्यों द्वारा रचित ग्रन्थों का आलोड़न करें, तो आचार्य हरिभद्रसरिकृत विंशतिविंशिका5 एवं पंचाशक प्रकरण/6 में यह उल्लेख मिलता है। इनमें प्रतिमा स्वरूप का प्रतिपादन करने वाले एक-एक स्वतन्त्र प्रकरण हैं, यद्यपि विधि-विधान को लेकर इनमें भी कुछ नहीं कहा गया है।