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________________ 430... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक .... आदि एवं पारिवारिक सदस्यों को उचित मार्गदर्शन देता रहता है। इस प्रकार वह परिग्रह से विरत हो जाने पर भी अनुमति विरत नहीं होता है, साथ ही आरम्भ का परित्यागी होने पर भी अपने निमित्त बनाए गए भोजन को ग्रहण करता है।33 नियमत: नौवीं प्रतिमाधारण करने वाला उपासक जलयान, नभोयान, स्थलयान आदि किसी भी वाहन का उपयोग न स्वयं करता है और न दूसरों को उपयोग करने के लिए कहता है। जितने भी गृहस्थ सम्बन्धी आरम्भजन्य कार्य हैं जैसे-गृहनिर्माण, व्यापार, विवाह आदि; उन्हें वह मन-वचन-काया से न स्वयं करता है और न दूसरों से करवाता है, किन्तु उनकी अनुमोदना करने का मार्ग खुल्ला रहता है। वह अधिक से अधिक संवर भाव में रहता हुआ अपने अनुचरों पर अनुशासन करना भी बंद कर देता है। . दिगम्बर परम्परा मानती है कि इस प्रतिमा में श्रावक सम्पूर्ण परिग्रह का परित्याग कर देता है, केवल वस्त्र आदि जो बहुत ही आवश्यक वस्तुएँ हैं, उन्हें ही रखता है। पं. दौलतरामजी34 ने क्रिया कोश में स्पष्ट लिखा है कि नौवीं प्रतिमा धारण करने वाला श्रावक काष्ठ और मिट्टी से निर्मित पात्र ही रख सकता है, धातुपात्र नहीं। गुणभूषण35 ने इस प्रतिमाधारी श्रावक के लिए वस्त्र के अतिरिक्त सभी प्रकार के परिग्रह-परित्याग का वर्णन किया है। ___10. उद्दिष्टभक्तत्याग प्रतिमा- उद्दिष्टभक्तत्याग का अर्थ है-स्वयं के निमित्त बने हुए भोजन का त्याग करना। दशाश्रुतस्कन्ध के अनुसार दसवीं प्रतिमा को धारण करने वाला उपासक न तो स्वयं के निमित्त बना हुआ आहार ग्रहण करता है और न ही किसी को आरम्भादि की अनुमति प्रदान करता है। सांसारिक बातचीत के लिए मात्र 'हाँ' या 'ना' में उत्तर देता है, निरन्तर स्वाध्याय और ध्यान में लीन रहता है और शिखा रखकर सिर के बालों का शस्त्र से मुण्डन करवाता है।36 . दिगम्बर परम्परा के अनुसार इस प्रतिमा का नाम अनुमतित्याग- प्रतिमा है जिसका अर्थ है- वह आरम्भ आदि के जो भी कार्य हैं, उनके लिए अनुमति भी नहीं देता है। घर पर रहकर भी गृह सम्बन्धी इष्ट-अनिष्ट कार्यों के प्रति न राग करता है और न द्वेष। वह कमल की तरह निर्लिप्त रहता है। इस प्रकार उद्दिष्टभक्त या अनुमतित्यागप्रतिमा में गृहस्थ सर्व प्रकार के आरम्भों का त्रिविध योगपूर्वक त्याग कर देता है।
SR No.006240
Book TitleJain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, C000, & C999
File Size37 MB
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