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उपासकप्रतिमाराधना विधि का शास्त्रीय विश्लेषण... 423
मानी है। उन्होंने दर्शनप्रतिमा के सम्यग्दर्शन और दार्शनिक श्रावक - इस प्रकार दो भेद करके बारह भेद स्वीकार किए हैं। 11 इसी प्रकार आचार्य सोमदेव ने दिवामैथुनविरति के स्थान पर रात्रिभोजनविरति प्रतिमा का विधान किया है। 12 श्वेताम्बर एवं दिगम्बर आम्नायों में अन्य मतभेद
इन दोनों परम्पराओं में एक महत्वपूर्ण अन्तर यह भी अवगत होता है कि श्वेताम्बर-परम्परा के अनुसार इन प्रतिमाओं के पालन के पश्चात् पुनः पूर्वावस्था (गृहस्थावस्था) में लौटा जा सकता है, लेकिन दिगम्बर परम्परा में प्रतिमा धारण की प्रतिज्ञा आजीवन के लिए होती है और साधक पुनः पूर्वावस्था की ओर नहीं लौट सकता। संभवतः यही कारण है कि दिगम्बर परम्परा में परिग्रहत्यागप्रतिमा को स्वतन्त्र स्थान दिया गया है। वहीं श्वेताम्बर परम्परा में उसे पृथक् स्थान नहीं दिया है, क्योंकि यदि साधक पुनः गृहस्थावस्था में लौटता है, तो उसको परिग्रह की आवश्यकता रहती है, अतः साधक मात्र आरम्भ का त्याग करता है, परिग्रह का नहीं ।
उक्त दोनों परम्पराओं में दूसरा मतभेद समय की अवधि को लेकर है। श्वेताम्बर परम्परा में प्रतिमा के परिपालन का न्यूनतम एवं अधिकतम समय निश्चित कर दिया गया है। इस परम्परा में अधिकतम समय की अपेक्षा पहली प्रतिमा का काल एक मास का बताया गया है। दूसरी प्रतिमा का दो मास, तीसरी का तीन मास, चौथी का चार मास, पाँचवी का पाँच मास, छठवीं का छ: मास, सातवीं का सात मास, आठवीं का आठ मास, नौवीं का नौ मास, दसवीं का दस मास और ग्यारहवीं का ग्यारह मास कहा गया है। जघन्य समय की अपेक्षा इन प्रतिमाओं का काल एक दिन, दो दिन, तीन दिन आदि है । 13 इस आधार पर निश्चित होता है कि ग्यारह प्रतिमाओं का उत्कृष्ट कालमान पांच वर्ष और छः महीना है।
दिगम्बर परम्परा में समय मर्यादा का कोई विधान नहीं है। वहाँ इन प्रतिमाओं को आजीवन के लिए ग्रहण किया जाता है। इस परम्परा में प्रतिमाधारी श्रावक उत्तर - उत्तर की प्रतिमाएं स्वीकार करने से पहले अपने सामर्थ्य के आधार पर यह निश्चित करता है कि - 'मैं आगे की प्रतिमा को धारण करने में पूर्ण समर्थ हूँ।' तब ही वह अगली प्रतिमा स्वीकार करता है। सामान्यत: जीवन की सांध्यावेला में या तो वह श्रमण बन जाता है अथवा समाधिमरण