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अध्याय - 7 उपासकप्रतिमाराधना विधि का शास्त्रीय विश्लेषण
इस विश्व में तीन संस्कृतियाँ विख्यात रही है - 1. यूनानी 2. भारतीय और 3. चीनी ।
यूनानी संस्कृति में समाज की प्रधानता है । भारतीय संस्कृति में व्यक्ति की प्रधानता और चीनी संस्कृति में परिवार की प्रधानता है। यदि वैश्विक संस्कृति का निर्माण करना हो, तो तीनों ही संस्कृतियों की मौलिक विचारधाराओं का सम्मिश्रण अपेक्षित है। यद्यपि भारतीय संस्कृति में अनेक संस्कृतियों का समावेश हो जाता है, तथापि विश्व संस्कृति के सन्दर्भ में यह बात स्पष्ट है कि वह व्यक्ति प्रधान है। भारत की श्रमण संस्कृति निर्विवाद रूप से यह मानती है कि व्यक्ति स्वयं ही अपने भाग्य का निर्माता है, अपने सुख और दुःख का कारण वह स्वयं है, वही स्वयं का शत्रु और मित्र है, इसीलिए भारतीय संस्कृति में व्यक्ति प्रधान साधना पद्धतियाँ विकसित हुईं। इसी के साथ जैन और बौद्ध परम्पराओं में संघीय साधना पद्धति का विकास भी हुआ।
जैन धर्म की साधना पद्धति दो भागों में वर्गीकृत है - 1. श्रावकधर्म और 2. श्रमणधर्म। ये दोनों ही साधनाएँ व्यक्तिपरक मानी गईं हैं, किन्तु समाज या संघ की उपेक्षा भी नहीं करती हैं। यह सत्य भी है कि व्यक्ति के धार्मिक और आध्यात्मिक-उत्कर्ष पर ही समाज और संघ का उत्कर्ष आधारित है। जैन धर्म में वैयक्तिक योग्यता को ध्यान में रखते हुए श्रावक धर्म की साधना-पद्धति को तीन भागों में विभाजित किया गया है - 1. श्रद्धावान् श्रावक 2. व्रती श्रावक और 3. प्रतिमाधारी श्रावक ।
जैन
ये तीनों क्रमशः व्यक्तिप्रधान साधना पद्धति के उत्तरोत्तर विकसित रूप हैं। गृहस्थ के लिए यह अनिवार्य शर्त है कि वह सर्वप्रथम सम्यक्त्व के गुणों से सम्पन्न हो। वही गृहस्थ व्रतधारी और प्रतिमा पालन करने का अधिकारी बन सकता है। जैन विचारणा में प्रतिमाधारी श्रावक को उत्कृष्ट कोटि का स्थान दिया गया है।