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392... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक .... आधार से की जाती है? वास्तविकता यह है कि इसका प्रामाणिक सूचन तो कहीं देखने को नहीं मिला है, केवल अर्वाचीन कृतियों में यह विधि पाई गई है, अत: कहा जा सकता है कि यह विधान जीतव्यवहार के अनुसार परम्परागत रूप से व्यवहृत है।
संभवत: इस विधान के पीछे कर्मों की विशेष निर्जरा एवं अन्तर्हदय से लघुताभाव प्रकट करने का उद्देश्य माना जा सकता है। साथ ही शारीरिक स्वस्थता आदि अन्य कारण भी निहित हैं, जैसे-दैहिक अवयवों को पुन:-पुनः झुकाने से मस्तिष्क व शरीर की माँसपेशियाँ लचीली बनती हैं। परिणामस्वरूप भावनात्मक चेतना में भी परिवर्तन आता है।
प्रचलित परम्परा में 100 खमासमण देने की यह विधि है
प्रथम सूत्रोपधान में 'पंचमंगलमहाश्रुतस्कंधाय नमः' -यह पद बोलते हुए पंचांगप्रणिपात पूर्वक 100 बार वन्दन करना। इसी प्रकार द्वितीय सूत्रोपधान में 'प्रतिक्रमणश्रुतस्कंधाय नमः', तृतीय सूत्रोपधान में 'शक्रस्तव अध्ययनाय नमः', चतुर्थ सूत्रोपधान में 'चैत्यस्तव अध्ययनाय नमः', पंचम सूत्रोपधान में 'नामस्तव अध्ययनाय नमः', षष्ठम सूत्रोपधान में 'श्रुतस्तव अध्ययनाय नमः' और सप्तम सूत्रोपधान में 'सिद्धस्तव अध्ययनाय नमः' पद बोलना चाहिए।
यहाँ उपधान काल में करने योग्य कायोत्सर्ग, खमासमण, नवकारवाली आदि का वर्णन अर्वाचीन संकलित कृतियों के आधार पर किया गया है। क्योंकि विक्रम की 16वीं-17वीं शती के पूर्ववर्ती ग्रन्थों में पूर्वोक्त चर्चा की गई हो, ऐसा ज्ञात नहीं है। आलोचना ग्रहण विधि __ प्रत्येक उपधानवाही को उपधान तप के समय लगे हुए दोषों से निवृत्त होने के लिए आलोचना करना चाहिए। आलोचना ग्रहण करने के पूर्व स्वयं के द्वारा जो भी दोष लगे हों, उन दोषों को अच्छी तरह स्मृति में रखना चाहिए। वर्तमान में इन्हें डायरी में या नोटबुक पर लिखने का भी प्रचलन है।
• जिस दिन उपधान पूर्ण हो रहा हो, उस तप दिन में उपधानवाही सायंकालीन क्रिया करने के बाद गुरू के समीप आएं तथा ईर्यापथिक प्रतिक्रमण करें। • फिर आदेशपूर्वक मुखवस्त्रिका का प्रतिलेखन कर दो बार द्वादशावर्त्तवन्दन करें। • उसके बाद दो खमासमण पूर्वक- 'इच्छा. संदि.!