________________
उपधान तपवहन विधि का सर्वाङ्गीण अध्ययन 389
चाहिए, इस सम्बन्ध में अस्वाध्याय के बत्तीस कारण बताए गए हैं। 150 उनमें मृत कलेवर आदि के गिरे रहने को भी अस्वाध्याय का कारण माना है अतः वाचना को शुद्ध विधिपूर्वक ग्रहण करने के निमित्त वसति का निरीक्षण किया जाता है। गुरू के समक्ष वसति-शुद्धि का प्रवेदन करने से यह तात्पर्य है कि उपधानवाही अप्रमत्त है, जागृत है, सावधानीपूर्वक वसति का शोधन किया गया है - इसी प्रयोजन से वाचनादान के पूर्व वसति प्रवेदन की विधि की जाती है ।
• वसति शोधन के पश्चात जिस उपधानवाही को सूत्र की वाचना ग्रहण करना हो, वह एक खमासमणपूर्वक "इच्छा. संदि भगवन्! वायणा मुहपत्ती पडिलेहेमि?" - हे भगवन् ! आपकी इच्छापूर्वक वाचना ग्रहण करने के निमित्त मुखवस्त्रिका का प्रतिलेखन करूँ ? ऐसा आदेश लेकर मुखवस्त्रिका का प्रतिलेखन करें, फिर दो बार द्वादशावर्त्तवन्दन करें। • उसके बाद “इच्छा.संदि. भगवन्! पढमोवहाण पंचमंगल महासुखंधस्स पढमवायणापडिग्गहणत्थं काउस्सग्गं करावेह " - हे भगवन् ! आप इच्छापूर्वक प्रथम उपधानसूत्र की प्रथम वाचना ग्रहण करने के निमित्त कायोत्सर्ग करवाईए - ऐसा गुरू से निवेदन करें। फिर गुरू की अनुमति लेकर, एक खमासमणपूर्वक 'पढमोवहाणपंचमंगल महासुयक्खंधस्स पढमवायणा पडिग्गहणत्थं करेमि काउस्सग्गं' - अन्नत्थसूत्र कहकर 'सागरवरगंभीरा' तक लोगस्ससूत्र का चिंतन करें। कायोत्सर्ग पूर्णकर पुनः प्रकट में लोगस्ससूत्र बोलें।
• तदनन्तर उपधानवाही एक खमासमण देकर कहें- “इच्छा. पंचमंगल महासुयक्खंधस्स पढमवायणा पडिग्गहणत्थं चेइयाइं वंदावेह | " गुरू कहें'वंदावेमो ।' पुनः उपधानवाही कहें- 'वासक्षेप करावेह' तब गुरू कहे'करावेमो ।' उसके बाद गुरू उपधानवाही के मस्तक पर वासचूर्ण का क्षेपण करें और चैत्यवन्दन के रूप में शक्रस्तव का पाठ बोलें।
·
उसके बाद उपधानवाही एक खमासमण देकर कहें- "इच्छा. संदि.! वायणं संदिसावेमि?"- हे भगवन् ! आपकी इच्छापूर्वक वाचना ग्रहण करने की अनुमति लूँ? तब गुरू कहे- 'संदिसावेह' - वाचना ग्रहण की अनुमति ले सकते हो। पुनः दूसरा खमासमण देकर कहे - "इच्छा संदि.! वायणं पडिग्गहेमि'' - हे भगवन्! आपकी इच्छापूर्वक वाचना ग्रहण करूँ ? गुरू कहे'पडिग्गहिह ' - वाचना ग्रहण करो ।