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उपधान तपवहन विधि का सर्वाङ्गीण अध्ययन, .357
करने का नियम था और पंच नमस्कार आदि सूत्रों के उद्देश के लिए लगातार पाँच उपवास किए जाते थे। यह विधि - प्रक्रिया विक्रम की 12वीं शती तक यथावत् विद्यमान थी- ऐसा सुबोधासामाचारी नामक ग्रन्थ का अध्ययन करने से सर्वथा स्पष्ट हो जाता है 1 66
जब आचारमय-सामाचारी का प्रवर्त्तन हुआ, उसके बाद के वर्षों में पाँच उपवास करने की प्रवृत्ति समाप्त हो गई और उसके स्थान पर दस आयंबिल किए जाने की परिपाटी प्रारम्भ हुई। इसमें सप्तविध सूत्रोपधानों में एक आयंबिल की वृद्धि कर निर्धारित उपवास का परिमाण पूरा किया जाने लगा अर्थात जिस सूत्र के अध्ययन के लिए जितने उपवास करने की परम्परा थी, वह आयंबिल द्वारा पूरी की जाने लगी। 67
कुछ समय बाद विक्रम की 13 वीं शती के अनन्तर एकान्तर उपवास के पारणे एकासन करने की प्रथा शुरू हुई। इतना निश्चित है कि विक्रम की 12 वीं शती तक एकासन करने की परिपाटी शुरू नहीं हुई थी, क्योंकि इसका सर्वप्रथम उल्लेख विधिमार्गप्रपा8 (14 वीं शती) में प्राप्त होता है। इसके पश्चात् आचारदिनकर॰9 (15 वीं शती) में यह परिवर्तित स्वरूप और अधिक स्पष्टता के साथ नजर आता है। अतः इतना निश्चित है कि 13 वीं शती से लेकर 15 वीं शती के मध्य एकान्तर उपवास और एकासन करने की परिपाटी प्रारम्भ हो चुकी थी। आज वह परम्परा स्थाई-सी बन गई है।
इस सम्बन्ध में उपधानवाहियों को यह ज्ञात रहे कि उपधान के समय एकान्तर उपवास और एकासन करना - यह उत्सर्ग विधि नहीं है, आपवादिकविधि है। यह विधि असमर्थ, वृद्ध एवं संहनन - हीन व्यक्तियों की अपेक्षा से कही गई है। जो साधक समर्थ, बलिष्ठ व युवा हैं, उन्हें औत्सर्गिक तपविधि पूर्वक उपधान करना चाहिए, वही श्रेयस्कर है।
उत्सर्ग तपपूर्ति परिमाण कोष्ठक- जो उपधानवाहक शास्त्रोक्त उपवास या आयंबिलपूर्वक सूत्र वहन नहीं कर सकते हैं, वे सामर्थ्यानुसार निर्दिष्ट किसी भी प्रकार का तप करके एक उपवास की पूर्ति कर सकते हैं और इस प्रकार एक-एक उपवास या आयंबिल की सम्पूर्ति करते हुए सभी सूत्रों का उपधान वहन कर सकते हैं। आज उपवास तप की परिपूर्ति नीवि या एकासन तप द्वारा करते हु देखी जाती है। इस हेतु अन्य प्रकार के तप जैसे- नवकारसी, पौरूषी,