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उपधान तपवहन विधि का सर्वाङ्गीण अध्ययन .337
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1. काल- सुयोग्य समय पर कालग्रहण की विधिपूर्वक ज्ञान पढ़ना काल नामक ज्ञानाचार है।
2. विनय - सद्ज्ञान, ज्ञानी साधु के पास होता है, उनसे विनयपूर्वक ज्ञान अर्जित करना विनयाचार है । विनय करने से ज्ञानी की कृपा प्राप्त होती है, स्वयं की योग्यता प्रकटती है, क्षयोपशम खिलता है और ज्ञानरोधक - कर्म दूर होते हैं।
3. बहुमान - ज्ञानी और ज्ञान के साधनों के प्रति अंतर्मन का अहोभाव रखना बहुमान है। विनय बाह्यकायिक-क्रियारूप होता है, जबकि बहुमान आंतरिक प्रीति-भक्ति रूप होता है। बहुमान करने से ज्ञानावरणीय-कर्म क्षय होते हैं।
4. उपधान- आत्मा के समीप सम्यग्ज्ञान धारण करना - यह 'उपधान' का शाब्दिक अर्थ है तथा विशिष्ट प्रकार का तप, जप और विरतक्रियापूर्वक ज्ञान के सूत्रों और उनके अर्थ को सद्गुरू के मुखारविन्द से प्राप्त करना एवं सुयोग्य जीवों को सूत्रादि पढ़ाने का अधिकार प्रदान करना - यह उपधान का परमार्थ है ।
5. अनिन्हव- जिस ज्ञानी गुरू के सन्निकट ज्ञानार्जन किया है, उसके उपकार को विस्मृत नहीं करना तथा उसका नाम नहीं छुपाना अनिन्हवज्ञानाचार है।
6. व्यंजन- सूत्र का उच्चारण करते समय स्वर - व्यंजन- मात्रा -- ह्रस्वदीर्घ-पद-संपदा आदि का यथास्थिति ध्यान रखना व्यंजन- ज्ञानाचार है | व्यंजन की शुद्धि रखना तत्त्वतः गणधर पद और उपाध्याय पद की आराधना है, क्योंकि सूत्र के स्वामी होते हैं।
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7. अर्थ- गृहीत सूत्रों का सम्यक् अर्थ जानना अर्थ-ज्ञानाचार है। सम्यक् अर्थपूर्वक सूत्रोच्चारण करने से अरिहंत परमात्मा या आचार्यपद की आराधना होती है, क्योंकि वे अर्थ के अधिपति होते हैं।
8. तदुभय- सूत्र और अर्थ - इन दोनों के योगपूर्वक धार्मिक कृत्य सम्पन्न करना तदुभय-ज्ञानाचार है।
स्पष्ट है कि उपधान ज्ञान के आठ आचारों में से चौथा आचार है। इस आचार का पालन करना गृहस्थ एवं मुनि- दोनों साधकों के लिए अनिवार्य बताया गया है। दोनों साधकों के अतिचारसूत्र में सर्वप्रथम ज्ञान सम्बन्धी आठ आचारों में लगे हुए दोषों का मिथ्यादुष्कृत देने सम्बन्धी पाठ है। जैन धर्म की