________________
326... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक ....
उपधान की अनिवार्यता को बताते हुए आचारप्रदीप में यहाँ तक कहा गया है- जो व्यक्ति आजीविका का निर्वाह करने हेतु सांसारिक कार्यों में रच पच गए हैं अथवा प्रमाद आदि के कारण उपधान आराधना नहीं करते हैं, उनके द्वारा किए गए नमस्कार महामंत्र का स्मरण, देववंदन, ईर्यापथिक-प्रतिक्रमण आदि रूप धार्मिक कार्य इस जन्म में किसी भी प्रकार से शुद्ध नहीं होते हैं तथा आगामी भव के लिए भी उपधानविहीन धर्मक्रिया श्रुतलाभ की प्राप्ति में कारण नहीं बनती है, क्योंकि ज्ञानविराधक के लिए ज्ञान की प्राप्ति करना दुर्लभ हो जाता है। यह प्रत्यक्षसिद्ध है, अत: ज्ञानाराधकों को उपधान विधि में पूर्ण सामर्थ्य के साथ प्रयत्न करना चाहिए।23
महानिशीथसूत्र में गौतमस्वामी ने यह प्रश्न किया है- हे भगवन् ! पंचमंगल महाश्रुतस्कन्ध का विनयोपधान अत्यन्त कठिन है, बालजीव यह उपधान किस प्रकार कर सकते हैं? तब भगवान् उत्तर देते हैं- हे गौतम ! जो जीव विनययुक्त उपधान की कठिन विधि को वहन करने की इच्छा नहीं रखते हैं, अथवा अविनयपूर्वक उपधान किए बिना ही पंचमंगल आदि श्रुतज्ञान को पढ़ते हैं, पढ़ाते हैं, या पढ़ने-पढ़ाने वाले की अनुमोदना करते हैं, वे प्रियधर्मी, दृढ़धर्मी, भक्तिमान आदि गुणों से युक्त नहीं होते हैं। वे गुरू की आशातना करते हैं, अतीत-अनागत-वर्तमान तीर्थंकर की आशातना करते हैं, श्रुतज्ञान की आशातना करते हैं, आचार्य-उपाध्याय-साधुओं की आशातना करते हैं। परिणामस्वरूप अनंत संसार समुद्र में भटकते रहते हैं तथा संवृत, विवृत चौरासी लाख संख्यावाली शीत, उष्ण व मिश्र योनियों में दीर्घकाल तक पराधीन होकर दुःख भोगते रहते है।24
हे गौतम ! यदि वह बाल जीव तप करने में असमर्थ हो या अरूचिवाला हो, तो धर्मकथाओं द्वारा सूत्र के प्रति भक्ति पैदा करवानी चाहिए। जब वह प्रियधर्मी, दृढ़धर्मी और भक्तियुक्त बन जाए, तब सामर्थ्य के अनुसार तपपूर्वक उपधान करवाना चाहिए। महानिशीथसूत्र में बाल जीवों के लिए उपधान-तप का परिमाण पूरा करने हेतु आपवादिक तपविधि इस प्रकार कही गई है25
द्विविध, त्रिविध या चतुर्विध-आहार के त्यागपूर्वक रात्रिभोजन का त्याग करना। उस रात्रिभोजन के त्यागपूर्वक पैंतालीस नवकारसी = एक उपवास, चौबीस पौरूषी = एक उपवास, बारह पुरिमड्ढ = एक उपवास, दस अवड्ढ