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पौषधव्रत विधि का सामयिक अध्ययन ...301
की आराधना करता है, उस समय पौषधव्रत में एक समय आहार करने की छूट रखी गई है, अन्यथा पर्व विशेष के दिन किए जाने वाले पौषधव्रत में उत्सर्गत: आहार करने की छूट नहीं है। शेष नियम दोनों परम्पराओं में समतुल्य हैं।
दूसरा तथ्य यह है कि जैन परम्परा में भोजनसहित जो पौषध किया जाता है, वह देशावगासिकव्रत कहलाता है और यह स्वरूप विशेषतया स्थानक परम्परा में प्रचलित है। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक की जैन परम्परा में तो चतुर्विध आहार के त्यागपूर्वक पन्द्रह सामायिक धारण कर एक स्थान पर रहने को देशावगासिकव्रत कहा गया है। प्रचलित परम्परा में देशावगासिक का यही स्वरूप उपलब्ध है।
बौद्ध परम्परा में उपोसथव्रत को स्वीकार करने के पीछे यही उद्देश्य रहा है कि सप्ताह में कम से कम एक दिन तो सांसारिक, पारिवारिक एवं व्यापारिक प्रपंचों से दूर होकर आत्मा की आराधना की जाए। इस परम्परा में उपोसथ का मूल आदर्श परमात्मपद को उपलब्ध करना है।
अंगुत्तरनिकाय में भगवान् बुद्ध ने कहा है-जिस व्यक्ति को अर्हत् के समान बनना है, वह पक्ष की चतुर्दशी, पूर्णिमा, अष्टमी तथा प्रतिहार्यपक्ष को अष्टांग शील से युक्त उपोसथव्रत का अवश्य आचरण करें।86
__इस प्रकार हम देखते हैं कि बौद्ध-परम्परा में उपोसथ (पौषध) का स्वरूप आध्यात्मिक नियमों से ओत-प्रोत है, जैन परम्परा के नियमों से अतिनिकट है और अर्हत्प्राप्ति के आदर्श का सूचक है। उपसंहार ___पौषधव्रत एक अलौकिक अनुष्ठान है। इसका सुयोग्य अधिकारी गृहस्थ को कहा गया है। यह गृहस्थ द्वारा की जाने योग्य एक विशिष्ट आराधना है। ____ इस व्रत का महत्त्व गृहस्थ की सभी साधनाओं में सन्निहित है। उपासक की ग्यारह प्रतिमाओं में पौषधप्रतिमा का चतुर्थ स्थान है और द्वादशव्रतों में इसका ग्यारहवाँ स्थान है। जैन-धर्म में आवश्यकसूत्रों के अध्ययन हेतु उपधान (तपोनुष्ठान) करने की व्यवस्था है। यह तपोनुष्ठान पौषधव्रत के साथ ही किया जाता है। इस प्रकार पौषध उपधान का अभिन्न अंग है। उपधान में प्रतिलेखन आदि की अधिकांश क्रियाएँ पौषधव्रत से सम्बन्ध रखती हैं।