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298... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक
पौषधविधिप्रकरण74, विधिमार्गप्रपा 75 आदि ग्रन्थों में 'अंगपडिलेहण' का आदेश लेकर पहने हुए वस्त्रों की एवं 'उपधि पडिलेहण' का आदेश लेकर शालकम्बल आदि की प्रतिलेखना करने का सूचन है और वर्तमान में यही विधि प्रचलित है।
भोजन की अपेक्षा - खरतर सामाचारी के नियमानुसार बिना उपधान के पौषधव्रती के लिए पौषधव्रत में भोजन करने का निषेध है, किन्तु जिन परम्पराओं में पौषधव्रत में भोजन करने का सामान्य प्रावधान हैं, उस अपेक्षा से तिलकाचार्य सामाचारी में एक नई बात यह कही गई है कि यदि पौषधव्रती को एकासनादि करना हो, तो स्वयं के घर जाएं, वहाँ स्थापनाचार्य की स्थापना करें, ईर्यापथिक प्रतिक्रमण करें, देववन्दन करें, आचार्यादि को वन्दन करें, फिर भोजन करें। तदनन्तर पौषधशाला में लौटकर जिन - प्रतिमा एवं आचार्यादि साधुओं को वन्दन कर तिविहार का प्रत्याख्यान ग्रहण करें | 76
विधिमार्गप्रपादि में भोजन - विधि की चर्चा उपधान के सन्दर्भ को लेकर की गई है। उसमें भोजन हेतु निज घर में जाने का या संबंधियों द्वारा लाया गया भोजन करने का ही निर्देश है। यहाँ तक का वर्णन सभी में लगभग समान है, किन्तु तिलकाचार्य सामाचारी में कुछ और नवीन तथ्य भी कहे गए हैं।
पौषधपारण विधि एवं पौषधपाठ की अपेक्षा - पौषधविधि प्रकरण 77, विधिमार्गप्रपा आदि ग्रन्थानुसार प्रथम तो पौषधव्रत पूर्ण करना चाहिए, उसके बाद सामायिकव्रत पूर्ण करना चाहिए। खरतरगच्छ परम्परा में इसी क्रम के अनुसार पौषध पारने की विधि की जाती है, जबकि तिलकाचार्यसामाचारी में व्युत्क्रम का निर्देश है अर्थात सामायिकव्रत पूर्ण करने के बाद पौषधव्रत पारने का सूचन है। 78 सामायिक और पौषध पारने के सूत्रपाठ भी अलग-अलग दिए गए हैं। पौषध व्रती द्वारा सामायिकव्रत पूर्ण करते समय तीन गाथाएँ बोलने का आख्यान है। वे गाथाएँ निम्न हैं
छउमत्थो मूढमणो, कित्तियमित्तंपि संभरइ जीवो।
जं च न सुमरामि अहं, मिच्छामि दुक्कडं तस्स ।।1।।
जं जं मणेणं बद्धं, जं जं वाएण भसियं पावं ।
जं जं कारण कयं, मिच्छामि दुक्कडं तस्स 11211