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266... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक ....
• सर्वप्रथम पौषधव्रत स्वीकार करनेवाला श्रावक आजीविका, खान-पान, शरीर शुश्रुषा एवं गृह कार्यों की चिन्ता से सर्वथा मुक्त हो जाता है।
• इन समस्त प्रकार की प्रवृत्तियों से दूर हटने के कारण उसे धर्म साधना के लिए भी पर्याप्त समय मिल जाता है।
• पौषधव्रत के समय एकान्तस्थल या पौषधशाला में रहने के कारण उसकी आत्मचिन्तनपरक दृष्टि स्वतः प्रकट होने लगती है। जब वह आत्मचिन्तन की ओर उन्मुख होता है, तब स्वयं की कमजोरियों का उसे अहसास होने लगता है तथा उनके निरसन का प्रयास प्रारम्भ हो जाता है।
• पौषधव्रत में प्राय: दूसरों के दोषों का चिन्तन नहीं होता है। उसकी दृष्टि स्व की ओर रहती है, अत: स्वदोषों का निष्कासन होता है।
• इस व्रत के द्वारा आत्मलोचन, आत्मनिरीक्षण, आत्मनिन्दा, आत्मगर्हा और आत्मशुद्धि का यथेष्ट लाभ प्राप्त किया जा सकता है।
• एक अहोरात्र के लिए आहार-त्याग करने से शरीर निरोगी बनता है, रोग के कीटाणु निष्क्रिय होकर समाप्त हो जाते हैं तथा वात, पित्त, कफ, श्लेष्म आदि का प्रकोप मन्द हो जाता है।
• एक अहोरात्रिपर्यन्त पवित्र एवं शान्त वातावरण में रहने से मानसिक तनाव, टेंशन, डिप्रेशन आदि स्वतः दूर हो जाते हैं। उसकी वैचारिक एवं बौद्धिक क्षमताओं का भी विकास होता है। परिणामस्वरूप जीवन की तमाम गतिविधियाँ सम्यक् रूप से संचालित होती है।
• एक अहोरात्रिपर्यन्त शारीरिक एवं मानसिक-श्रम कम होने से आलस्य, प्रमाद आदि दोष मन्द पड़ जाते हैं तथा धर्माराधना के लिए साधक सक्रिय और सशक्त बन जाता है।
• उतने समय के लिए षड्निकाय-जीवों को अभयदान मिलता है, उससे उत्कृष्ट अहिंसा धर्म का पालन होता है।
• मुनि जीवन को अंगीकार न कर सकने वाले साधक 24 घंटों के लिए संयमी जीवन का आस्वाद प्राप्त करते हैं, आत्मिक-आनन्द का अनुभव करते हैं और चारित्रात्माओं की अनुमोदना कर अनन्तानन्त पाप कर्मों का क्षय कर लेते हैं।
अत: यह सुस्पष्ट है कि पौषधव्रत की साधना विविध दृष्टियों से गणकारी और लाभकारी है।