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सामायिक व्रतारोपण विधि का प्रयोगात्मक अनुसंधान ...253 सकती है। जिस प्रकार सामायिकव्रत में पवित्र स्थान पर सम आसन से मन, वाक् और शरीर का संयम किया जाता है, उसी प्रकार गीता के अनुसार ध्यानयोग की साधना में भी शुद्ध भूमि पर स्थिर आसन में बैठकर शरीरचेष्टा और चित्तवृत्तियों का संयम किया जाता है।
इसमें सभी प्राणियों के प्रति आत्मवत् दृष्टि, सुख-दुख, लौह-कांचन, प्रिय-अप्रिय, निन्दा-स्तुति, मान-अपमान, शत्रु-मित्र में समभाव और सावध का परित्याग करने को नैतिक-जीवन का लक्षण माना गया है। श्रीकृष्ण अर्जुन को यही उपदेश देते हैं- हे अर्जुन ! तू अनुकूल और प्रतिकूल सभी स्थितियों में समभाव धारण कर।75 बौद्धदर्शन में भी यह समत्ववृत्ति स्वीकृत है। धम्मपद में कहा गया है कि सब पापों को नहीं करना और चित्त को समत्ववृत्ति में स्थापित करना ही बुद्ध का उपदेश है।76 ___इस प्रकार जैन साधना में वर्णित सामायिकव्रत की तुलना गीता के ध्यानयोग आदि की साधना एवं बौद्ध की उपदेश-विधि के साथ की जा सकती है। इतना ही नहीं, वैदिक धर्मानुयायियों में सन्ध्या, मुसलमानों में नमाज, ईसाईयों में प्रार्थना, योगियों में प्राणायाम की भाँति ही जैन धर्म में सामायिक-साधना अवश्य करणीय है। इसमें चित्तविशुद्धि और समभाव की साधना की जाती है, जो वर्तमान युग में अधिक प्रासंगिक है। जैन परम्परा में गृहस्थ के लिए यह व्रत साधना दैनिक कृत्य के रूप में भी बतलाई गई हैं। सन्दर्भ-सूची 1. तत्त्वार्थसूत्र, 9/18 2. सर्वार्थसिद्धि, 7/21/703, पृ. 279 3. रागद्दोसविरहिओ समो त्ति, अयणं अयो त्ति गमणंति। समगमणं ति समाओ, स एव सामाइयं नाम।
विशेषावश्यकभाष्य, गा. 3478 4. गोम्मटसार-जीवकाण्डटीका, गा.-368, पृ.-612 5. उत्तराध्ययनसूत्र, 19/90 6. मूलाचार, 1/23 7. 'अहवा समस्स आओ गुणाण लाभो त्ति जो समाओ सो'।
विशेषावश्यकभाष्य, गा.-3480