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सामायिक व्रतारोपण विधि का प्रयोगात्मक अनुसंधान ... 251
विनष्ट हो जाते हैं।
अर्द्धावनत-मुद्रा में खड़े रहने से विनयगुण का संवर्द्धन होता है। परिणामतः मनोयोग स्थिर बनता है, क्रोध - अहंकार आदि के भाव न्यून होते हैं और सामायिक साधना पूर्णरूपेण फलवती बनती है।
सामायिक पूर्ण करते समय सर्वप्रथम ईर्यापथिक - प्रतिक्रमण करते हैं। वह प्रतिक्रमण सामायिक काल में लगे हुए गमनागमन सम्बन्धी दोषों की आलोचना एवं उसकी शुद्धि के निमित्त किया जाता है ।
सामायिकव्रत पूर्ण करते समय दो प्रकार के आदेश गुरू के प्रति बहुमान प्रदर्शित करने एवं गुरू के स्थान को सर्वोच्च बनाए रखने के प्रयोजन से लिए जाते हैं।
सामायिक पूर्ण करने का पाठ मस्तक को भूमितल पर स्पर्शित करते हुए बोला जाता है। जो सामायिकव्रत में हुई पापकारी प्रवृत्तियों का पश्चाताप करने एवं उन प्रवृत्तियों से अलग हटने का प्रतीक है। लोक व्यवहार में भी अपराध स्वीकार करने के लिए मस्तक झुकाते हैं।
यहाँ विधि-सूत्रों के सम्बन्ध में एक महत्त्व की बात यह है कि भारतीय परंपरा की उपासना पद्धति में कुछ मंत्र, स्तोत्र, सूत्र आदि एक, दो, तीन या अधिक बार भी बोले जाते हैं। इसका प्रयोजन संभवतः यह है कि पहली बार के उच्चारण में त्वरा के कारण, अनवधान के कारण या अन्य किसी कारण से उसके अर्थ एवं हेतु में चित्तं एकाग्र न हुआ हो, तो अधिक उच्चारण से एकाग्र हो जाता है। इसे अनुभव एवं अनुमान के आधार पर सिद्ध किया जा सकता है। कुछ अनुष्ठान क्रियाओं में मंत्र-सूत्रादि को अधिक बार दोहराने की पद्धति सर्वमान्य रही है। लौकिक जीवन में शपथविधि लेने हेतु या विधायक को अनुमोदना देने हेतु प्रायः वह विधि तीन बार की जाती है अतः सामायिक स्वीकार करने का प्रतिज्ञासूत्र सर्वाधिक महत्वपूर्ण होने से तीन बार बोलते हैं।
इस प्रकार हम देखते हैं कि सामायिक-विधि की क्रमिकता और उसके प्रयोजन अर्थपूर्ण भावों को लिए हुए हैं।