________________
250... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक .... में प्रवेश करने के लिए गुरू को स्तोभवंदन (लघुवंदन) करते हैं। गुरूवन्दन करने का उद्देश्य व्रत साधना की निर्विघ्नता हेतु अनुज्ञा प्राप्त करना और गुरू के प्रति विनय भाव प्रकट करना है। __सामायिक जैसी शुद्ध, निरवद्य एवं अध्यात्म-क्रिया में प्रवेश करने और भाव-परिमार्जन करने के निमित्त वस्त्र, उपकरण, शरीर आदि की प्रतिलेखना एवं प्रमार्जना की जानी चाहिए, किन्तु उस समय सभी की प्रतिलेखना असंभव होने के कारण उपलक्षण से मुखवस्त्रिका एवं शरीर के आवश्यक अंगों की ही प्रतिलेखना करते हैं। वह प्रतिलेखन-क्रिया चित्तशुद्धि के निमित्त की जाती है।
सामायिक-साधना में उपस्थित रहने की प्रतिज्ञा हेतु अर्द्धावनत-मुद्रा में 'करेमिभंते' सूत्र बोलते हैं। यह प्रतिज्ञासूत्र समभाव की साधना में स्थिर रहने, सावद्यकार्यों का त्याग करने एवं मन:संकल्प को टिकाए रखने के उद्देश्य से बोला जाता है, क्योंकि प्रतिज्ञाबल से तन और मन-दोनों स्थिर बनते हैं।
सामायिक लेते समय 'ईर्यापथिक प्रतिक्रमण' करते हैं। यह प्रतिक्रमण घर से उपाश्रय आदि के लिए आते समय लगे दोषों से निवृत्त होने, हिंसादि पापों से विरत होने एवं हृदय को शल्यादि से रहित करने के लिए किया जाता है। इसका मुख्य उद्देश्य गमनागमन में लगे दोषों से विरत होना है।
सामायिकव्रत स्वीकार करने के पश्चात गुरू भगवन्त से पंचांगप्रणिपात(वन्दन) पूर्वक दो बार आसन पर बैठने की एवं दो बार स्वाध्याय करने की अनुज्ञा लेते हैं-यह आदेश विधि स्वच्छंदवृत्ति का निरोध करने, अपराधवृत्ति के प्रति सजग रहने एवं संकल्पित साधना के प्रति संलग्न बने रहने के प्रयोजन से की जाती है।
यदि मनोविज्ञान एवं शरीरविज्ञान की अपेक्षा मनन किया जाए तो इस विधि-प्रक्रिया के माध्यम से मस्तिष्क, उदर, हृदय, पाँव आदि से सम्बन्धित अनेक प्रकार की बीमारियाँ दूर होती हैं। शुभभावों की धारा का सतत प्रवाह होते रहने के कारण तथा हिंसादि पापमय प्रवृत्तियों से विलग रहने के कारण शाता वेदनीय का बंध होता है और अशाता वेदनीय कर्मों की निर्जरा हो जाती है। निश्चित अवधि के लिए बाह्य-प्रपंचों से दूर रहने के कारण बौद्धिक क्षमता में विकास होता है, चिन्ताएँ समाप्त होती हैं तथा पूर्व संचित पापकर्म