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228... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक .... सूक्ष्म होते हैं कि उन्हें प्रत्यक्ष में देखना असंभव है। खुले मुँह बोलने पर व्यक्ति की उष्ण श्वास उन जीवों के लिए प्राण घाती भी बन जाती है अत: जीव रक्षा और आशातना से बचने के लिए मुखवस्त्रिका का उपयोग करते हैं। दूसरा अनुभूतिजन्य हेतु यह है कि इसे मुख के आगे रखने पर व्यक्ति सावध, कठोर या अप्रियवचन नहीं बोल सकता है। यह इस उपकरण का निसर्गज प्रभाव है।
इस तरह मुखवस्त्रिका पारमार्थिक-बोध देते हुए हित, मित, परिमित बोलने का संदेश देती है तथा गृहीत व्रत में स्थिर रहने का आह्वान करती है। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा के अनुसार इसे मुख से चार अंगुल दूर रखना चाहिए। स्थानकवासी एवं तेरापंथी परम्परा में इसे मुख पर बांधते हैं। दिगम्बर-परम्परा में मुखवस्त्रिका का उपयोग ही नहीं होता है।
मुखवस्त्रिका 16 अंगुल लम्बी और 16 अंगुल चौड़ी होनी चाहिए।
चरवला- यह शब्द चर+वला इन दो शब्दों से संयोजित है। 'चर' का अर्थ है- चलना, फिरना, उठना आदि गतिशील क्रियाएँ और ‘वला' का अर्थ है- पूंजना, प्रमार्जना। सामायिक सम्बन्धी प्रत्येक क्रिया प्रमार्जनापूर्वक होनी चाहिए। प्रमार्जना करने से जीवरक्षा होती है। जीवरक्षा द्वारा अहिंसा का पालन होता है। अहिंसा का पालन करना ही यथार्थ धर्म है, साधना है, आराधना है अतएव चरवला का उपयोग जीवरक्षा के लिए होता है। सामायिकव्रती को खमासमण, वंदन, सज्झाय आदि आदेश के निमित्त या अन्य आवश्यक कार्यों के लिए उठना-बैठना हो, तब चरवला द्वारा पाँव एवं आसन की प्रमार्जना अवश्य करें। हमें प्रत्यक्षत: कोई जीव न भी दिखाई दें, परन्तु यतनापूर्वक प्रवृत्ति करना जिनाज्ञा है।
चरवला ऊन के गुच्छों से बनता है। इसका परिमाण बत्तीस अंगल कहा गया है। इसमें 24 अंगुल की डण्डी और 8 अंगुल ऊन की फलियाँ होनी चाहिए।
• श्वेताम्बर-मूर्तिपूजक की सभी परम्पराओं में आसन आदि उपकरणों का प्रयोजन एवं प्रमाण पूर्वोक्त ही स्वीकारा गया है। स्थानकवासी एवं तेरापंथी-परम्परा में चरवले का प्रयोजन और उसकी उपयोगिता तो उसी रूप में स्वीकार्य है, परन्तु माप आदि के सम्बन्ध में कुछ भिन्नता आ गई है।