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220... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक
भी कहा जाता है। इस प्रकार सामायिक में साधक को आसन का ध्यान अवश्य रखना चाहिए।
सामायिक पूर्वाभिमुख या उत्तराभिमुख क्यों करें ?
सामायिक करते समय दिशा का ध्यान रखना भी अत्यावश्यक है। यह साधना पूर्व या उत्तर दिशा की ओर मुख करके करनी चाहिए। इसमें विशिष्ट रहस्य समाहित है। पूर्व दिशा की ओर मुख करके सामायिक करने का यह प्रयोजन है कि सूर्य पूर्व दिशा में उदित होता है, इससे पूर्व दिशा उदय मार्ग की सूचना देती है, स्वयं की तेजस्विता को बढ़ाने की प्रेरणा करती है तथा मानवमात्र को स्व- सामर्थ्य के अनुसार अभ्युदय करने का संकेत करती है।
उत्तर दिशा - उच्च भाव की द्योतक है। उत्तरदिशा का अर्थ है- उच्च जीवन, उच्च विचार, उच्च आचार, उच्च गति । इस तरह यह उच्चता को प्राप्त करने का संकेत देती है। मानव का हृदय बाईं तरफ होने से वह उत्तर दिशा की ओर है। मनुष्य - देह में हृदय का सर्वोच्च स्थान स्वीकारा गया है। वह आत्मा का केन्द्र स्थान है। यह कहावत है- 'जो जैसे हृदय का होता है वह वैसा बनता है।' यदि हृदय में उच्च भावनाएँ हैं, तो वह महान बनता है। लोक मान्यतानुसार व्यक्ति के पास श्रद्धा, निष्ठा, भक्ति-भावना का जो हिस्सा है, वह हृदय में है तथा हृदय उत्तर दिशा की ओर रहा हुआ है। इस तरह उत्तर दिशा श्रेष्ठ एवं पवित्र बनने का संकेत करती है।
प्रसिद्ध ध्रुवतारा भी उत्तरदिशा में स्थित है। यह उत्तरदिशा के केन्द्रिय स्थल पर स्थिर दिखाई देता है, इधर-उधर गतिमान प्रतीत नहीं होता है। जहाँ पूर्वदिशा प्रगति, अभ्युदय, गतिशीलता का संदेश देती है वहीं उत्तरदिशा स्थिरता, दृढ़ता, निश्चयात्मकता की प्रेरणा करती है । केवल गति या स्थिरता जीवन को पूर्ण नहीं बना सकती, परन्तु दोनों का सुमेल हो तो व्यक्ति उच्चता के आदर्श शिखर पर स्थापित हो सकता है।
उत्तरदिशा की महत्ता को उजागर करने का एक प्रत्यक्ष प्रमाण हैदिशासूचक यन्त्र। इस यन्त्र में लोह चुंबक की एक सूचिका होती है, जो हमेशा उत्तरदिशा की ओर ही घूमती रहती है। वह लोह सूचिका जड़ है, फिर भी उत्तर दिशा की ओर ही चलती रहती है अतः मानना होगा कि उत्तरदिशा की ओर ऐसी कोई आकर्षण शक्ति है, जो लोहचुंबक को अपनी ओर