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________________ बारहव्रत आरोपण विधि का सैद्धान्तिक अनुचिन्तन ...205 पल्लवित होने लगता है, विरतिभाव का पोषण होता है, विवेक का दीप प्रज्वलित होकर ज्ञानावरणीयादि कर्मों का क्षय होता है। इस व्रत के उपरान्त व्यक्ति की आकांक्षाएँ एवं इच्छाएँ सीमित हो जाती हैं, निरर्थक क्रियाओं का अवरोध हो जाता है। सद्धर्म का सामान्य अवबोध होने से सत्यासत्य का बोध होने लगता है। अस्तु, व्रतारोपण के प्रसंग पर परिग्रह सम्बन्धी विभिन्न प्रकार की मर्यादाएँ निश्चित की जाती हैं। इससे लोभवृत्ति एवं संग्रहवृत्ति का निरोध होता है, ममत्व का विलय और निर्ममत्व जीवन जीने की कला का अभ्यास होता है। एक अवधि के पश्चात् व्यक्ति एवं वस्तुओं पर मूर्छाभाव न्यूनतम अवस्था तक पहुँच जाता है। स्वामीत्व को लेकर होने वाले संघर्ष समाप्त हो जाते हैं। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भी इस व्रतारोपण की सर्वाधिक प्रासंगिकता है। सारांश रूप में देशव्रती-उपासक बाह्य से आभ्यन्तर, बहिरात्मा से अन्तरात्मा की ओर जीवन यात्रा को गतिशील बनाता है। सन्दर्भ-सूची 1. आवश्यकनियुक्ति, गा.-863 2. धर्मबिन्दुप्रकरण(सटीका), पृ.-2 3. भगवती आराधना, गा.-2080 4. रत्नकरण्डकश्रावकाचार, गा.-52 5. (क) तत्त्वार्थसूत्र, 7/1-2 (ख) तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति, 7/2 (ग) तत्त्वार्थभाष्य, 7/2 6. श्रावकप्रज्ञप्ति, 107 7. सागारधर्मामृत, 4/5 8. योगशास्त्र, 2/18 9. स्थानांगसूत्र, मधुकरमुनि, 3/4/175 10. उपासकदशा, मधुकरमुनि, 1/11 11. आवश्यकसूत्र, मधुकरमुनि, पृ. 99 12. आचारांगसूत्र, मधुकरमुनि, 1/4/34 13. (क) तप्पढमाए थूलगं पाणाइवाय उवासगदसाओ, 1/13 (ख) थूलगं पाणाइवाय समणोवासओ पच्चक्खाइ। आवश्यकसूत्र, पहला अणुव्रत
SR No.006240
Book TitleJain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, C000, & C999
File Size37 MB
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