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________________ 186... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक 5. व्रती श्रावक के सोलह हजार आठ सौ आठ भेद इन भेदों के लिए पाँच अणुव्रत सम्बन्धी देवकुलिका एवं उसके लिये पाँच अणुव्रतों के सांयोगिक भांगों का ज्ञान आवश्यक है। विस्तार भय से पूर्वोक्त भेदों का स्पष्टीकरण नहीं किया जा रहा है। जिज्ञासुवर्ग इस संबंधी सम्यक् जानकारी हेतु प्रवचनसारोद्धार, धर्मसंग्रह आदि ग्रन्थों का अध्ययन करें। श्रावक की व्रत व्यवस्था का ऐतिहासिक विकासक्रम किसी व्यक्ति को जैन श्रावक की कोटि में स्थापित करने के लिए सामान्यतः बारहव्रतारोपण की विधि की जाती है। इस विधि से यह सुनिश्चित किया जाता है, कि यह व्यक्ति तीर्थंकर परमात्मा द्वारा उपदिष्ट देशविरति (आंशिक संयम) के मार्ग पर चलने के लिए आरूढ़ हुआ है। द्वादशव्रत धारण करने वाला उपासक हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह-इन पाँच प्रकार के पाप सम्बन्धी कार्यों को स्थूल रूप से न करने की मर्यादाएँ स्वीकार करता है। यह गृहस्थ की अणुव्रत साधना कहलाती है। इसके साथ ही दिशा सम्बन्धी, उपभोगपरिभोग सम्बन्धी एवं अनर्थदण्ड (निष्प्रयोजन हिंसा) सम्बन्धी पाप कार्यों को न करने का एकदेश त्याग करता है । यह उपासक की गुणव्रत साधना कही जाती है। इस व्रतारोपण संस्कार में सामायिकव्रत, देशावगासिकव्रत, पौषधव्रत एवं अतिथिसंविभागव्रत - इन चार प्रकार के आत्मिक अनुष्ठान को यथानियम करने की प्रतिज्ञा धारण करता है । इन व्रतों का स्वीकार करना शिक्षाव्रत कहलाता है। जैन परम्परा में बारहव्रतधारी गृहस्थ ही उत्कृष्ट श्रावक कहलाने का अधिकारी है, अतः इस व्रत को स्वीकार करने के बाद वह गृहस्थ जैन श्रावक की कोटि में आ जाता है। यहाँ विचारणीय बिन्दु यह है कि बारह व्रत ग्रहण करने की विधि सम्बन्धी चर्चा कहाँ, किस रूप में उपलब्ध होती है ? यदि इस सम्बन्ध में मनन करें, तो जहाँ तक जैन आगम साहित्य का प्रश्न वहाँ उपासकदशा आदि कुछ आगमों में श्रमण जीवन की आचार संहिता पर विस्तृत विवेचन उपलब्ध होता है। उन आगम ग्रन्थों का आलोडन करने से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि जितना व्यापक चिन्तन श्रमण जीवन के सम्बन्ध में हुआ है, उतना श्रावक जीवन के सम्बन्ध में नहीं हुआ है, क्योंकि श्रमण - जीवन
SR No.006240
Book TitleJain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, C000, & C999
File Size37 MB
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