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174... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक .... नियोजित कार्यक्रम नहीं होता। जिसने आध्यात्मिक साधना के लिए स्वगृह का त्याग कर अनगार-धर्म ग्रहण किया है, उस भिक्षुक को न्यायोपार्जित निर्दोष वस्तुओं का निस्वार्थभाव से श्रद्धापूर्वक दान देना अतिथिसंविभाग व्रत है।
उपासकटीका में चारित्र सम्पन्न योग्य पात्रों के लिए अन्न, वस्त्र, आदि के यथाशक्ति विभाजन को अतिथिसंविभाग-व्रत कहा गया है।96 उपासकदशा सूत्र की अभयदेवटीका में कहा गया है कि श्रावक ने अपने लिए जो आहार आदि बनाया है उनमें से साधु-साध्वियों को कल्पनीय आहार आदि देने के लिए विभाग करना यथासंविभागवत है।97
श्रावकप्रतिक्रमणसूत्र में साधुओं के योग्य निर्दोष अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य-आहार देने को अतिथि संविभाग व्रत कहा है।98 पुरूषार्थसिद्धयुपाय के अनुसार दाता के गुणों से युक्त श्रावक को स्वपर अनुग्रह के हेतु विधिपूर्वक यथाजातरूप अतिथि साधु के लिए द्रव्य विशेष का संविभाग अतिथिसंविभाग है।99
उपासकाध्ययन में गृहस्थों को विधि, देश, आगम, पात्र एवं काल के अनुसार दान देना चाहिए-ऐसा कहा गया है।100 चारित्रसार आदि में संयम के रक्षार्थ विहार करने वाले अतिथि के लिए आहार आदि का जो विभाग किया जाता है, उसे अतिथिसंविभाग-व्रत कहा है। योगशास्त्र में अतिथियों को चार प्रकार का आहार, वस्त्र, मकान आदि देना उसे अंतिथिसंविभाग बताया है।101 लाटीसंहिता में इसे दान कहकर उत्तम, मध्यम एवं जघन्य पात्रों में से जो भी मिल जाए, उसे विधिपूर्वक दान देने को अतिथिसंविभाग कहा है।102
श्वेताम्बर-मूर्तिपूजक की वर्तमान परम्परा में अतिथिसंविभागी श्रावक प्रथम दिन पौषध करता है, दूसरे दिन एकासना करके अपने गृहांगन में साधुसाध्वी एवं श्रावक-श्राविका को आमंत्रित कर उन्हें आहार आदि प्रदान करता है, इसे अतिथिसंविभाग व्रत माना है। __अतिथिसंविभाग के प्रकार- अतिथिसंविभागी को आहार आदि प्रदान करते समय मुख्य रूप से चार बातों का ध्यान रखना आवश्यक है- 1. विधि 2. द्रव्य 3. दाता और 4. पात्र। जो दान इन चार विशेषताओं से युक्त हो, वही सुपात्रदान है। 1. विधि- किसी भी प्रकार के स्वार्थ या अपेक्षा भाव से रहित होकर दान देना।