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154... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक
इच्छाओं के सीमित होने के कारण व्यक्ति मनोजयी, इन्द्रियजेता एवं आत्मविजेता बनता है। परिमाण से अधिक धन-सम्पदा होने पर उसका जनहित में उपयोग कर सकता है। वह जगत् में अनेक लोकोपकारी कार्य कर पुण्य का संचय कर सकता है। आरम्भ, मिथ्याभाषण, चौर्य, लोभ आदि दोषों से बचने के कारण आस्रव का निरोध कर कर्मबंधन से बचता है। परिग्रह - परिमाण करने वाला व्यक्ति निर्धन वर्ग की ईर्ष्या का भाजन बनने से बच जाता है। शास्त्रों में कहा गया है-'लोहो सव्वविणासणो' लोभ सर्वगुणों का विनाशक है। दुनियाँ में अधिकांश पाप लोभ के कारण पनपते हैं। परिग्रह परिमाण से लोभवृत्ति का द्वार बन्द हो जाता है। परिग्रह का परिमाण 'सर्वजनहिताय, सर्वजनसुखाय' होता है क्योंकि उसमें सम्पदा पर एकाधिपत्य की भावना समाप्त हो जाती है। अपनी पूर्ति होने के पश्चात् सर्वकल्याण का भाव विकसित हो उठता है ।
इस व्रत के पालन से असत् आरम्भ ( निंदनीय हिंसादि व्यापार) से निवृत्ति और आरम्भमय (हीन व्यापारादि) प्रवृत्ति का त्याग होता है। इससे अल्प आरंभ एवं अल्प परिग्रह होने के कारण सुख वृद्धि, धर्म की संसिद्धि, लोकप्रशंसा, देवताओं की समृद्धि और परंपरा से मोक्ष प्राप्त होता है। 47 योगशास्त्र में भी वर्णन है कि परिग्रह परिमाणव्रती के लिए संतोष भूषण बन जाता है, समृद्धि उसके पास रहती है। उस कारण से कामधेनु चली आती है और देवता दास की भाँति आज्ञा मानते हैं। 48
हानियाँ- परिग्रह को पाप का मूल माना है । परिग्रह के कारण अनेक पाप पनपते हैं। प्रश्नव्याकरणसूत्र में स्पष्ट कहा गया है कि परिग्रह के लिए लोग हिंसा करते हैं, झूठ बोलते हैं, चोरियाँ करते हैं, मिलावट और धोखेबाजी करते हैं और दूसरों को अपमानित करते हैं। परिग्रह के कारण ही महाशिलाकंटक महायुद्ध हुआ था।49 इतिहास के पृष्ठों पर ऐसे सैकड़ों व्यक्तियों के उदाहरण मिलते हैं, जिन्होंने परिग्रह के लिए महापाप किए। माता-पिता, भाई और बहन के मधुर सम्बन्ध भी परिग्रह के कारण अत्यन्त कटु हो गए, यहाँ तक कि वे एक-दूसरे के संहारक भी बने।
उपदेशमाला में कहा है कि अपरिमित परिग्रह अनंत तृष्णा का कारण है और दोष युक्त होने से नरकगति का मार्ग है। 50 भक्तपरिज्ञा में उल्लेख है - "जीव परिग्रह के निमित्त हिंसा करता है, झूठ बोलता है, चोरी
करता है और