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110... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक .... जैन-धर्म के अनुसार श्रावक के व्रत आदि ग्रहण करने सम्बन्धी कुछ उल्लेख उपासकदशा जैसे प्राचीन आगमों में मिलते हैं, किन्तु वहाँ सम्यक्त्वव्रतग्रहण के विषय में आनन्दश्रावक मात्र इतना ही कहता है- "हे भगवन्! निर्ग्रन्थ-प्रवचन सुआख्यात है, सुप्रज्ञप्त है, सुभाषित है, मुझे निर्ग्रन्थ प्रवचन में श्रद्धा है, विश्वास है, निम्रन्थ प्रवचन मुझे रूचिकर लगते है। वह ऐसा ही है, तथ्य है, सत्य है, इच्छित है, प्रतीच्छित है। यह वैसा ही है जैसा आपने कहा है।''111 इस आधार पर हम यह कह सकते हैं कि प्राचीनकाल में जैनधर्म में दीक्षित होने के लिए उसके प्रति निष्ठा व्यक्त करना ही पर्याप्त समझा जाता था।
कालान्तर में बौद्ध-परम्परा में जिस प्रकार त्रिशरण ग्रहण करने की विधि प्रचलित हुई, उसी प्रकार जैन-धर्म में दीक्षित होने के लिए चतुःशरण ग्रहण करने की पद्धति विकसित हुई। इसमें चार शरण निम्न माने गए हैं1. अरिहंत 2. सिद्ध 3. साधु और 4. केवलि-प्ररूपित धर्म।
इस वर्णन के आधार पर कहा जा सकता है कि सम्यक्त्व व्रतारोपण सम्बन्धी यत्किंचिद विधि का उल्लेख एक मात्र उपासकदशा सूत्र में उपलब्ध होती है तथा आगम युग में जिनप्रवचन के प्रति निष्ठा की अभिव्यक्ति करने के साथ ही व्यक्ति को जैन धर्म में दीक्षित मान लिया जाता था। ____ आगम युग के अनन्तर नियुक्ति, भाष्य और चूर्णि साहित्य में भी इस सम्बन्ध में किसी विशेष जानकारी का उल्लेख उपलब्ध नहीं है। संभवतया आगमिक-व्याख्याओं और प्राचीन आचार्यों के ग्रन्थों में हमें सम्यक्त्व आरोपण के सम्बन्ध में निम्न पाठ उपलब्ध होता है
अरिहंतो महदेवो, जावज्जीवं सुसाहुणो गुरूणो ।
जिणपन्नत्तं तत्तं इय, सम्मत्तं मए गहियं ।। इस प्रकार हम यह कह सकते हैं कि सम्यक्त्व आरोपण के लिए कालान्तर में उक्त पाठ का उच्चारण करना आवश्यक माना गया। इस पाठ में देव के रूप में अरिहन्त, गुरू के रूप में निर्ग्रन्थ-मनि और धर्म के रूप में जिनप्रज्ञप्त-धर्म के प्रति अपनी निष्ठा को व्यक्त किया गया है। इस पाठ में स्पष्ट रूप से यह भी कहा गया है कि 'इय सम्मत्तं मए गहियं'-यह