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102... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक
इनका विकास सामाजिक जीवन के मधुर सम्बन्धों का सृजन करता है। ये गुण वैयक्तिक जीवन के लिए जितने उपयोगी हैं उससे भी अधिक सामाजिक जीवन के लिए आवश्यक हैं।
यदि हम समीक्षात्मक पहलू से मनन करें, तो ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर अवगत होता है कि जैनागमों एवं आगमिक- व्याख्याओं में कहीं भी श्रावक के लिए आवश्यक गुणों एवं कर्त्तव्यों का विवेचन नहीं है। सातवीं शती के पूर्व तक श्रावक के आचार-धर्म का वर्णन मुख्य रूप से व्रतग्रहण के आधार पर ही किया गया उपलब्ध होता है। हाँ, दिगम्बर- परम्परा मान्य रत्नकरण्डकश्रावकाचार आदि में यह चर्चा सामान्य रूप से प्राप्त हो सकती है।
श्वेताम्बर-परम्परा मान्य श्रावक के पैंतीस गुणों की चर्चा सर्वप्रथम आचार्य हरिभद्रकृत (8 वीं शती) धर्मबिन्दुप्रकरण में प्राप्त होती है। उसके बाद आचार्य हेमचन्द्रकृत (12 वीं शती) योगशास्त्र में यह विवेचन पढ़ने को मिलता है। तदनन्तर यह वर्णन 14वीं - 15वीं शती के ग्रन्थों एवं संकलित ग्रन्थों में परिलक्षित होता है। आचार्य नेमिचन्द्र ( 12 वीं शती) ने श्रावक के इक्कीस गुणों का निर्देश किया है, किन्तु यह अवधारणा पैंतीस गुणों की मान्यता से परवर्ती है।
दिगम्बर परम्परा मान्य अष्टमूलगुणों की सर्वप्रथम चर्चा समन्तभद्रकृत (चौथी शती) रत्नकरण्डक श्रावकाचार में दृष्टिगत होती है। इसके पश्चात पं. आशाधरजीकृत ( 14 वीं शती) सागार धर्मामृत आदि में श्रावक के चौदह गुण भी बताए गए हैं।
इससे सुस्पष्ट है कि जैनाचार्यों ने जीवन को अधिक गुणवान् बनाने वाले गुणों का निर्देश कर एक क्रान्तिकारी विचारणा उपस्थित की है अत: वर्तमान परिप्रेक्ष्य में इन गुणों की अत्यधिक प्रासंगिकता है।
यदि गृहस्थव्रती के लिए आवश्यक पैंतीस गुणों की उपादेयता को लेकर विचार करें, तो आचार्य हेमचन्द्र द्वारा प्रतिपादित इन गुणों में से ग्यारह गुण कर्त्तव्य रूप (पालन करने योग्य), आठ गुण त्यागजन्य, आठ गुण ग्रहण करने योग्य और आठ गुण साधना (अभ्यास) करने योग्य हैं। यह