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74... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक .... 3. क्षायोपशमिक सम्यक्त्व ।
1. औपशमिक सम्यक्त्व- उपशम का अर्थ है-उपशमन करना या दबा देना। जिस प्रकार मिट्टीयुक्त जल से भरे हुए गिलास में फिटकरी आदि का प्रयोग किया जाए, तो मिट्टी स्वत: नीचे दब जाती है और ऊपर में स्वच्छ पानी दिखाई देता है, उसी प्रकार उक्त सप्तविध प्रकृतियों का उपशम होने पर जो सम्यक्त्व-गुण (सत्य बोध) प्रकट होता है, वह औपशमिक सम्यक्त्व है, किन्तु जैसे ही गिलास को धक्का लगता है पानी पुन: गंदा हो जाता है, वैसे ही दर्शनसप्तक (अनन्तानुबंधी कषायचतुष्क और दर्शनत्रिक) का उदय होने पर यह सम्यक्त्व विनष्ट हो जाता है, तथापि इस सम्यक्त्व की यह विशेषता है कि एक बार इसका स्पर्श करने वाले जीव का संसार मात्र अर्द्धपुद्गल परावर्तन जितना शेष रहता है। इस सम्यक्त्व की अधिकतम अवधि एक मुहूर्त (48 मिनिट) है।
2. क्षायिक सम्यक्त्व- दर्शनमोहनीय की सात कर्म-प्रकृतियों का क्षय होने पर जो यथार्थबोध होता है, वह क्षायिक सम्यक्त्व है। इस सम्यक्त्व की यह विशेषता है कि एक बार प्रकट होने पर यह कभी नष्ट नहीं होता है। क्षायिक सम्यक्त्व नित्य है तथा प्रतिसमय गणश्रेणी निर्जरा का कारण है। कहा भी है 'तच्चं भवं नाइक्कमइ'- इस शास्त्रवचन के अनुसार क्षायिक सम्यक्त्वी जीव तीन भव में मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
3. क्षायोपशमिक सम्यक्त्व- चार अनन्तानुबन्धी कषाय, मिथ्यात्व मोहनीय और मिश्र मोहनीय-इन छ: प्रकृतियों के उदयाभावी क्षय और इन्हीं के सदवस्थारूप उपशम से देशघातीस्पर्द्धक वाली सम्यक्त्व-प्रकृति के उदय में जो तत्त्वार्थ-श्रद्धान होता है अर्थात् दर्शनसप्तक में से छ: प्रकृतियों का क्षय और सम्यक्त्व-प्रकृति का उपशम होने पर जो श्रद्धान (सत्यबोध) होता है, वह क्षायोपशमिक सम्यक्त्व है।
औपशमिकादि तीनों प्रकार के सम्यग्दर्शन के संबंध में विशेष जानने योग्य यह है कि . क्षायिक-सम्यग्दर्शन चौथे गणस्थान से लेकर ऊपर के सभी गुणस्थानों में पाया जाता है। • द्वितीयोपशम-सम्यग्दर्शन चतुर्थ गुणस्थान से उपशांतमोह नामक ग्यारहवें गुणस्थान तक पाया जाता है। • उपशम और क्षयोपशम-ये दो सम्यक्त्व साधन हैं और क्षायिकसम्यक्त्व