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________________ 70... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक .... उनका सामान्य-विशेष रूप से अनेक प्रकार का प्ररूपण सम्भव है, किन्तु यहाँ एकमात्र मोक्ष का प्रयोजन है अत: जाति की अपेक्षा से जीव और अजीव-ये दो तथा पर्यायरूप से आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्षइन पाँच तत्त्वों को मिलाकर सात तत्त्व ही कहे हैं। इन सात तत्त्वार्थ के श्रद्धान का नाम ही सम्यग्दर्शन है। अनेक स्थानों पर पुण्य और पाप को मिलाकर नौ पदार्थ भी कहे जाते हैं। ये पुण्य-पाप आस्रव-बन्ध के ही विशेष भेद हैं अत: सात तत्त्वों में गर्भित हैं। तत्त्वार्थ श्रद्धान के यथार्थ अभिप्राय का अर्थ है जो वस्तु जैसी है उसे वैसा ही मानना और इसी का नाम सम्यग्दर्शन है। यदि सम्यग्दर्शन के विभिन्न लक्षणों का समन्वय किया जाए, तो मुख्य रूप से चार लक्षण ज्ञात होते हैं 1. सात तत्त्वों का श्रद्धान 2. देव-शास्त्र-धर्म(गुरू) का श्रद्धान 3. स्व-पर का श्रद्धान और 4. आत्मा का श्रद्धान। उपर्युक्त चारों ही लक्षण परस्पर गर्भित एवं प्रचलित हैं इसलिए तत्त्वार्थ श्रद्धान को सम्यग्दर्शन का प्रमुख लक्षण बतलाया है। जैन साहित्य में मिथ्यात्व का स्वरूप एवं प्रकार सत्य को असत्य, धर्म को अधर्म, पुण्य को पाप आदि मानते हुए विपरीत बुद्धि रखना, सत्यता को स्वीकार नहीं करना, देव-गुरू-धर्म पर श्रद्धा नहीं करना अथवा गलत मार्ग को स्वीकार करना मिथ्यात्व है। मिथ्यात्व पाँच प्रकार का होता है-22 1. आभिग्रहिक- 'मैं जो मानता हूँ या कहता हूँ, वही सत्य है बाकी सब असत्य है'-इस प्रकार की आग्रह बुद्धि रखना आभिग्रहिक- मिथ्यात्व है। 2. अनाभिग्रहिक- सही क्या है, गलत क्या है, इसका विवेक नहीं रखना और सब कुछ सत्य है, सही है-ऐसा मानना अनाभिग्रहिक मिथ्यात्व है। 3. आभिनिवेशिक- अभिनिवेश का अर्थ है दुराग्रह। सत्य को जानते हुए भी अपनी असत्य बात को पकड़कर रखना, उसका हठाग्रह नहीं छोड़ना, आभिनिवेशिक मिथ्यात्व है। ___4. सांशयिक- जिनेश्वर प्रणीत तत्त्व (सिद्धान्त) के प्रति शंका रखना
SR No.006240
Book TitleJain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, C000, & C999
File Size37 MB
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