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सम्यक्त्वव्रतारोपण विधि का मौलिक अध्ययन ...67 दृश्यते अनेन दृष्टिमात्रं वा दर्शनम्' अर्थात जो देखता है, जिसके द्वारा देखा जाए या देखना मात्र। यही दर्शन शब्द का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है।
स्वरूपतः सम्यग्दर्शन में प्रयुक्त 'दर्शन' शब्द का अर्थ 'श्रद्धान' है मात्र देखना या अवलोकन करना नहीं। व्याकरण दृष्टि से धातुओं के अनेक अर्थ होते हैं अतः ‘दृश्' धातु से श्रद्धानरूप अर्थ करने में कोई दोष नहीं है। जैन दर्शन में सम्यग्दर्शन को श्रद्धा, रूचि, स्पर्श और प्रत्यय अथवा प्रतीति आदि नामों से भी जाना जाता है।
इस प्रकार सम्यग्दर्शन शब्द तत्त्व साक्षात्कार, आत्मानुभूति, सामान्यबोध, दृष्टिकोण, तत्त्वश्रद्धान आदि अनेक अर्थों का द्योतक है। इस अध्याय में सम्यक्त्व का अर्थ सत्यबोध, आत्मबोध, श्रद्धान और देव-गुरूधर्म के प्रति श्रद्धा रखना आदि जानना चाहिए। सम्यग्दर्शन के अर्थों की विकास-यात्रा
डॉ. सागरमल जैन के अनुसार भगवान महावीर के समय में प्रत्येक धर्म प्रवर्तक अपने सिद्धान्त को सम्यक दृष्टि और दूसरे के सिद्धान्त को मिथ्यादृष्टि कहता था। बौद्धागमों में 62 मिथ्यादृष्टियों एवं जैनागम सूत्रकृतांगसूत्र में 363 मिथ्यादृष्टियों का उल्लेख मिलता है, लेकिन वहाँ पर मिथ्यादृष्टि शब्द का प्रयोग अश्रद्धा या मिथ्याश्रद्धा के रूप में न होकर गलत दृष्टिकोण के अर्थ में हुआ है। यह गलत दृष्टिकोण जीव और जगत् के सिद्धान्तों को लेकर माना गया था। कुछ समय के बाद प्रत्येक सम्प्रदाय जीवन और जगत् सम्बन्धी अपने दृष्टिकोण पर विश्वास करने को सम्यग्दृष्टि कहने लगा और जो लोग विपरीत मान्यता रखते थे, उन्हें मिथ्यादृष्टि कहने लगा, तब सम्यक्दर्शन शब्द तत्त्वार्थ (जीव और जगत् के स्वरूप के) श्रद्धान के अर्थ में रूढ़ हुआ। लेकिन तत्त्वार्थश्रद्धान के अर्थ में भी सम्यक्-दर्शन शब्द अपने मूल अर्थ से अधिक दूर नहीं हुआ था, तथापि भावनागत दिशा बदल चुकी थी। उसमें श्रद्धा का तत्त्व प्रविष्ट हो चुका था, परन्तु वह श्रद्धा तत्त्वस्वरूप के प्रति थी।
यह ज्ञातव्य है कि श्रमण परम्परा में लम्बे समय तक सम्यग्दर्शन का दृष्टिकोणपरक अर्थ ही ग्राह्य रहा, जो परवर्तीकाल में तत्त्वार्थश्रद्धान के रूप में विकसित हुआ। यहाँ तक श्रद्धा ज्ञानात्मक थी। वस्तुतः सम्यग्दर्शन का यथार्थ दृष्टिकोण परक अर्थ ही उसका प्रथम एवं मूल अर्थ है और यह अर्थ