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66... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक ....
• उत्तराध्ययनसूत्र में दर्शन का श्रद्धापरक अर्थ किया गया है। • तत्त्वार्थसूत्र में दर्शन का अर्थ तत्त्वश्रद्धान किया है।10
इस तरह जीव-अजीव आदि पदार्थों के स्वरूप को जानकर उन पर श्रद्धा करना दर्शन है।11
• परवर्ती जैन-साहित्य में दर्शन शब्द देव, गुरू और धर्म के प्रति श्रद्धा एवं भक्ति के अर्थ में रूढ़ हो गया है। सम्यक्त्व की यह व्याख्या सामान्य साधक की अपेक्षा से की गई है।12 सम्यक्दर्शन का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ
यद्यपि सम्यक्त्व और सम्यक्दर्शन समानार्थक हैं तथापि सम्यक्दर्शन में प्रयुक्त ‘सम्यक्' शब्द की व्याख्या करते हुए आचार्य उमास्वाति लिखते हैं 13_ 'सम्यक्' शब्द दो प्रकार से प्रशंसा अर्थ का द्योतक है। वह निपातरूप में भी प्रशंसा का सूचक है और व्युत्पत्ति अर्थ में भी प्रशंसासूचक है। आचार्य पूज्यपाद इसकी व्याख्या करते हुए लिखते हैं14-‘सम्यक्' शब्द अव्युत्पन्न(रूढ़िपरक) और व्युत्पन्न(व्याकरणसिद्ध) युगलरूप है। जब यह व्याकरण से सिद्ध किया जाता है तब ‘सम्' उपसर्गपूर्वक 'अंचे' धातु से 'क्विप्' प्रत्यय करने पर सम्यक् शब्द बनता है। संस्कृत में इसकी व्युत्पत्ति 'समंचति इति सम्यक्'-इस प्रकार होती है। प्राकृत में इसका अर्थ प्रशंसा है। पदार्थों के सच्चे श्रद्वान को व्यक्त करने के लिए दर्शन के पहले 'सम्यक्' विशेषण दिया गया है। आचार्य अकलंकदेव ने भी 'सम्यक्' शब्द प्रशंसार्थक माना है। 'सम्यगिष्टार्थतत्त्वयोः' इस पद के अनुसार 'सम्यक्' शब्द का प्रयोग इष्टार्थ और तत्त्व अर्थ में होता है। इसका भावार्थ है- जो पदार्थ जैसा है, उसे वैसा ही जानना सम्यक् कहलाता है।15
सम्यक्दर्शन में द्वितीय पद 'दर्शन' है। आचार्य उमास्वाति ने यह व्याख्या इस प्रकार की है16-'सम्यक्' शब्द की तरह दर्शन शब्द भी 'दृश्' धातु से भाव में 'ल्युट्' प्रत्यय होकर बना है। प्रशंसार्थक सम्यक् शब्द दर्शन का विशेषण है अतएव प्रशस्त संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय आदि दोषों से रहित दर्शन को अथवा युक्तिसिद्ध दर्शन को सम्यग्दर्शन कहते हैं। आचार्य पूज्यपाद ने 'दर्शन' शब्द के स्पष्टीकरण में लिखा है17-दर्शन शब्द कर्तृसाधन, करणसाधन और भावसाधन तीनों रूप में है जैसे-“पश्यति