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________________ जैन गृहस्थ के प्रकार एवं उसकी धर्माराधना विधि ...61 शुचि: पुष्पामिषस्तोत्रै-देवमभ्यर्च्य वेश्मनि। प्रत्याख्यानं यथाशक्ति, कृत्वा देवगृहं व्रजेत्।। प्रविश्य विधिना तत्र, त्रि:प्रदक्षिणयेज्जिनम्। पुष्पादिभिस्तमभ्यर्च्य, स्तवनरूत्तमैः स्तुयात्।। ततो गुरूणामभ्यणे, प्रतिपत्तिपुरःसरम्। विदधीत विशुद्धात्मा, प्रत्याख्यान प्रकाशनम्।। अभ्युत्थानं तदा लोकेऽभियानं च तदागमे। शिरस्यंजलिसंश्लेषः, स्वयमासनढौकनम्।। आसनाभिग्रहो भक्त्या, वंदना पर्युपासनम्। तद्यानेघ्नुगमश्चेति, प्रतिपत्तिरियं गुरोः।। ततः प्रतिनिवृत्त: सन्, स्थानं गत्वा यथोचितम्। सुधीधर्मा विरोधेन, विदधीतार्थचिंतनम्।। ततो माध्याह्निकी पूजा, कुर्यात् कृत्वा च भोजनम्। तद्विद्भिः सह शास्त्रोर्थ, रहस्यानि विचारयेत्।। ततश्च संध्यासमये, कृत्वा देवार्चनं पुनः। कृतावश्यककर्मा च, कुर्यात्स्वाध्यायमुत्तमम्।। न्याय्येकाले ततो देव, गुरूस्मृतिपवित्रितः। निद्रामल्पामुपासीत, प्रायेणाब्रह्मवर्जकः।। निद्राछेदे योषिदंग, सतत्त्वं परिचिंतयेत्। स्थूलभद्रादिसाधूनां, तन्निवृत्तिं परामृशन्। (ख) योगशास्त्र, 3/121-131 64. पंचाशक, 1/44 65. योगशास्त्र, 3/128 66. योगशास्त्र, 1/45 67. यह वर्णन पंचाशक में नहीं है, योगशास्त्र में उल्लिखित है, 3/129 68. पंचाशक, 1/46-49 69. योगशास्त्र, 3/28-31 70. वसुनन्दिश्रावकाचार, प्रस्तावना- प्र.-26-27 के आधार पर। 71. जैन आचार सिद्धान्त और स्वरूप, पृ.-194-198 72. तत्त्वार्थसूत्र, 7/18
SR No.006240
Book TitleJain Gruhastha Ke Vrataropan Sambandhi Vidhi Vidhano ka Prasangik Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaumyagunashreeji
PublisherPrachya Vidyapith
Publication Year2014
Total Pages540
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, C000, & C999
File Size37 MB
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