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48... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक .... शंका करते हों कि गृहस्थ तीन करण और तीन योगपूर्वक व्रत-धारण क्यों नहीं कर सकता है? उनके लिए समाधान यह है कि पारिवारिक-कम्बियों के संग रहने वाले गृहस्थ का सम्बन्ध ऐसे व्यक्तियों से भी होता है, जिन्होंने पापों का परित्याग नहीं किया हो, तब उन व्यक्तियों के साथ व्यवहारादि निभाने के कारण पाप कार्यों की अनुमोदना करनी पड़ती है।
दूसरा कारण यह है कि व्रतधारी गृहस्थ कदाच स्वजन और परिजन को वचन और काया से किसी पाप की अनुमति नहीं भी दे, पर उनके साथ रहने, परिचित होने या उनके सम्बन्धी होने के नाते उसकी मूक अनुमति तो हो ही जाती है। वह स्वयं स्थूल हिंसा नहीं करता है, दूसरों से भी नहीं करवाता है, पर गृहस्थ होने से उसने अपने पारिवारिक-ममत्व का त्याग नहीं किया है अत: वे जो कुछ हिंसा आदि करते हैं, उसे न तो उनसे छुड़वा सकता है, न उनके साथ परिचय आदि का त्याग कर सकता है, इसलिए अनुमोदना का दोष तो उसे लगता ही है। कभी-कभी उसे गृहमुखिया का कर्तव्य निभाने की वजह से प्रेरणा भी देनी पड़ती है जैसे-दो करण तीन योग से व्रत ग्रहण किए हुए गृहस्थ ने किसी से कहा कि आप भोजन कर लो। यदि भोजन करने वाला राज्याधिकारी या अभक्ष्यभोजी है, तो वह अभक्ष्य एवं अपेय पदार्थों का उपभोग करेगा, जो कि हिंसाजनक है। व्रती के लिए इस प्रकार का आदेश देना नहीं कल्पता है, किन्तु व्यावहारिक जीवन का निर्वाह करने के लिए अनचाहे भी पाप कार्यों में सम्मिलित होना पड़ता है, क्लेशवृद्धि आदि कारणों की वजह से उनसे सर्वथा सम्बन्ध भी तोड़ा नहीं जा सकता है।
इस विषय के स्पष्टीकरण हेतु उपासकदशा का पाठांश पढ़ने योग्य है। उसमें वर्णन आता है कि महाशतक श्रावक की तेरह पत्नियाँ थीं। उनमें रेवती अत्यन्त क्रूर प्रकृति की नारी थी। उसने अपनी बारह सौतों को विष एवं शस्त्रप्रयोग से मार दिया था और उनकी सम्पूर्ण सम्पत्ति पर उसका आधिपत्य हो गया था। रेवती जैसी क्रूर पत्नी का संयोग होने पर व्रती-गृहस्थ का क्या कर्तव्य बनता है ? क्या उसे मारा जाए? या उसे घर से बाहर निकाल दिया जाए? महाशतक दीर्घदर्शी श्रावक था। वह जानता था कि रेवती हिंसक अवश्य है. किन्तु व्यभिचारिणी नहीं है। वह दो करण तीन योग पूर्वक हिंसा का त्यागी था अत: हिंसा तो कर ही नहीं सकता था, फिर भी रेवती के साथ रहने से