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38... जैन गृहस्थ के व्रतारोपण सम्बन्धी विधियों का प्रासंगिक .... ___ जैन परम्परा के प्रथम तीर्थंकर प्रभु ऋषभदेव पर्यावरण सुरक्षा के प्रथम संवाहक महापुरूष थे जिन्होंने पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति में जीव के अस्तित्व की अवधारणा दी और उनकी रक्षा के लिए अहिंसा को व्यापक बनाया। उन्होंने पर्यावरण की परिधि को भी असीमित कर दिया। यह अहिंसा केवल स्थावर कायिक जीवों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि त्रसजीव भी इस परिधि में सम्मिलित होते हैं। इसमें आध्यात्मिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक आदि वे सारे क्षेत्र भी आ जाते हैं, जिनका सम्बन्ध व्यक्ति और समाज से है। इन सारे क्षेत्रों के पर्यावरण को विशुद्ध बनाए रखने में जैनधर्म के जो सिद्धान्त हैं, वे अनुपम, अकाट्य और मानवता को जगाने वाले हैं। जैनाचार्यों ने श्रावकाचार के रूप में उन सिद्धान्तों को विशेष रूप से उपन्यस्त किया है। यदि पर्यावरण को गहराई से समझकर उसे धर्म एवं मानवता से जोड़ दिया है कि एक का सुख दूसरे का सुख और एक का दुःख, दूसरे का दुःख बन जाता है। किसी एक वर्ग द्वारा की गई असावधानी से दूसरा वर्ग प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता।
यह प्रत्यक्षीभूत भी है कि वैचारिक-प्रदूषण वातावरण को प्रदूषित करता है जैसे- एक ग्रह में विस्फोट होने से दूसरे ग्रह का वातावरण बदल जाता है। सूर्य सौरमण्डल का केन्द्र है। पृथ्वी पर रहने वाले पशु, मानव आदि समस्त जीवों का जीवन सूर्य पर आधारित है। जल, वर्षा, वृक्ष, स्वास्थ्य, भोजन, आवास, वायु-यह सब कुछ सूर्य के आधार से है। सौरमण्डल के परिवर्तन से हमारा जीवन तुरन्त प्रभावित होता है। भूकम्प, ज्वारभाटा आदि जैसे प्रकृति के प्रकोप भी सौरमण्डल के कारण होते हैं। आधुनिक-वैज्ञानिकों ने यह सिद्ध कर दिया है कि पृथ्वी ग्रहों से प्रभावित होती है और ग्रह पृथ्वी से प्रभावित होते हैं। प्राकृतिक
और कृत्रिम गैसो, विस्फोटों के विकिरण से ग्रहों पर हुए प्रभाव का अनुभव सभी ने किया ही है। मिश्र, ब्रिटेन, अमेरिका, फ्रांस आदि देशों में पहाड़ों पर अधिक बर्फ जमना, वर्षा आना, सूखा पड़ना, भूमि-स्खलन होना, ज्वारभाटा आना आदि सब कुछ सौरमण्डल के प्रभाव से होता है।
जैन परम्परा में उत्सर्पिणीकाल और अवसर्पिणीकाल का जो विवरण मिलता है, वह सौरमण्डल की गति-स्थिति से बहुत जुड़ा हुआ है। यह सब पर्यावरण का ही भाग है। अस्तु, पर्यावरण की सुरक्षा के लिए ही धर्म का जन्म