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संस्कारों का मूल्य और उनकी अर्थवत्ता...27 तक की अवधि में समय-समय पर प्रत्येक कुलीन व्यक्ति को सोलह बार संस्कारित करके एक प्रकार की आध्यात्मिक शक्ति का संचार किया जाता है। इसमें व्यक्ति को मानव से महामानव के स्तर तक जा पहुँचने की प्रत्यक्ष
अप्रत्यक्ष प्रेरणा दी जाती है। यह संस्कार पद्धति सूक्ष्म अध्यात्म पर अवलम्बित है। संस्कार कर्म की प्रक्रिया करते समय जो मन्त्र उच्चारित किए जाते हैं, उनकी ध्वनि तरंगें संस्कार किए जा रहे व्यक्ति के लिए एक अलौकिक वातावरण प्रस्तुत करती हैं अर्थात जो भी व्यक्ति इस वातावरण में होते हैं या जिनके लिए भी उस पुण्य प्रक्रिया का प्रयोग होता है, वे उससे प्रभावित होते हैं। उसके परिणाम स्वरूप व्यक्ति के गुण, कर्म, स्वभाव में अन्य अनेकों दिव्य विशेषताएँ प्रस्फुटित होती हैं। मूलत: संस्कारों की प्रक्रिया एक ऐसी आध्यात्मिक उपचार पद्धति है, जिसका परिणाम कभी व्यर्थ नहीं जाता।
श्रीरामशर्मा आचार्य लिखते हैं कि प्रत्येक संस्कार के मन्त्रों में अनेक ऐसी विशेषताएँ भरी हुई हैं, जो उन परिस्थितियों में व्यक्ति के लिए उपयोगी बनती हैं। उदाहरण के लिए सीमान्त संस्कार के समय उच्चारित किए जाने वाले मन्त्रों में गर्भवती के रहन-सहन, आहार-विहार सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण शिक्षाएँ मौजूद हैं। इसी तरह विवाह संस्कार में दाम्पत्य जीवन की, अन्नप्राशन में भोजन
आदि की, विद्यारम्भ संस्कार में विवेचन लेखन की आवश्यक शिक्षाएँ होती हैं। इस प्रक्रिया में परिवार को संस्कारवान बनाने एवं कौटुम्बिक जीवन को धार्मिक भावनाओं से ओत-प्रोत करने की एक मनोवैज्ञानिक प्रणाली रही है।
जिस समय संस्कार कर्म की प्रक्रिया निष्पन्न की जाती है, उस समय हर्षोत्सव का वातावरण रहता है। उस प्रक्रिया में देवताओं की साक्षी, धर्म भावनाओं से ओत-प्रोत मनोभूमि, स्वजन सम्बन्धियों की उपस्थिति, पुरोहित या गृहस्थ गुरु द्वारा करवाया जाता धर्मकृत्य-यह सभी मिलकर संस्कार से योग्य व्यक्तियों को एक विशेष प्रकार की मानसिक अवस्था में पहुँचा देते हैं। मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त के आधार पर कहें तो उस हर्षमय वातावरण में जो प्रतिज्ञाएँ की जाती हैं अथवा जो प्रक्रियाएँ करवाई जाती हैं, वे सक्ष्म मन पर गहरा प्रभाव छोड़ती हैं। इस प्रकार संस्कार कर्म व्यक्ति के शरीर, मन एवं आत्मा को पूर्वावस्था से बहुत ऊँचा उठा देते हैं। व्यक्ति का जीवन धार्मिक, नैतिक एवं आध्यात्मिक रंग से महक उठता है, जिसके फलस्वरूप मानव मात्र